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निर्हाय ( परित्यज्य ) आहारं, कालधर्मे उपस्थिते । त्यक्त्वा मानुषीं तनुं प्रभुः दुःखाद् विमुच्यते ॥ २० ॥
पदार्थान्वयः–निज्जूहिऊण - छोड़कर, आहारं - आहार को, कालधम्म - कालधर्म के, उवट्ठिए-उपस्थित होने पर, चइऊण- छोड़कर, माणुसं - मनुष्य-सम्बन्धी, बोंदि - शरीर को, अर्थात् सामर्थ्यवान् साधक, दुक्खा - दुःखों से विमुच्चई - छूट जाता है।
पहू-प्रभु
मूलार्थ-प्रभु अर्थात् समर्थ मुनि कालधर्म अर्थात् मृत्यु के उपस्थित होने पर चतुर्विध आहार का परित्याग करके मनुष्य-सम्बन्धी शरीर को छोड़कर सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है।
टीका - प्रस्तुत गाथा में संलेखना का प्रकार बताया गया है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से विशिष्ट सामर्थ्य को प्राप्त करने वाला साधु मृत्यु- समय के निकट आ जाने पर सूत्रोक्त विधि के अनुसार संलेखना अर्थात् अनशन के द्वारा चतुर्विध आंहार का परित्याग करके समाधि में लीन हो जाए। इस प्रकार के अनुष्ठान से वह इस औदारिक शरीर को छोड़ता हुआ सर्व प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों से छूट जाता है।
इस सारे कथन का अभिप्राय यह है कि वीर्यान्तराय कर्म के क्षय हो जाने से इस आत्मा में रही हुई अनन्त शक्तियों का आविर्भाव हो जाता है। उससे यह जीव अवशिष्ट कर्म - बन्धनों को तोड़कर सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है तथा अन्तिम समय में संलेखना - विधि के द्वारा सर्व प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हुआ इस औदारिक शरीर के साथ ही कार्मण शरीर का भी अन्त कर देता है और इस आवागमन के चक्र से छूटकर परमानन्द-स्वरूप मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है।
संलेखना-विधि का वर्णन इस सूत्र के ३६वें अध्ययन में किया गया है, इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु आत्मा को चाहिए कि वह इस प्रकार के पंडित मरण की प्राप्ति के लिए अपने जीवन में भरसक प्रयत्न करे।
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अब प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए पूर्वोक्त मुनि कर्त्तव्य का फल वर्णन करते
हैं, यथा
निम्ममे
निरहंकारे, वीयरागो अणासवो
संपत्तो केवलं नाणं, सासयं परिणिव्व ॥ २१ ॥ तिमि ।
इति अणगारज्झयणं समत्तं ॥ ३५ ॥ निर्ममो निरहङ्कारः वीतरागोऽनास्रवः 1 सम्प्राप्तः केवलं ज्ञानं शाश्वतं परिनिर्वृतः ॥ २१ ॥ इति ब्रवीमि ।
इत्यनगाराध्ययनं समाप्तम् ॥ ३५ ॥
पदार्थान्वयः - निम्ममे - ममत्व से रहित, निरहंकारे - अहंकार से रहित, वीयरागो - रागद्वेष से रहित, अणासवो-आस्रवों से रहित, केवलं नाणं - केवल ज्ञान को, संपत्तो - प्राप्त हुआ, सासयं - शाश्वत
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३५५] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं