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टीका-नाम और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की है, परन्तु कई एक प्रतियों में 'अट्ठमुहुत्तं' ' के स्थान पर 'अंतमुहुत्तं' लिखा हुआ है जिसका अर्थ है अन्तर्मुहूर्त्त अर्थात् नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तमात्र है । परन्तु अन्यत्र शुभ नाम कर्म और उच्च गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति का उल्लेख आठ मुहूर्त्त ही माना गया है 1
इसलिए यहां पर भी "अट्ठ मुहूत्तं" पाठ ही समीचीन प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त इतना और स्मरण रहे कि यहां पर जो उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का वर्णन है वह केवल मूल प्रकृतियों का ही समझना चाहिए, उत्तर प्रकृतियों का नहीं । उत्तर प्रकृतियों के लिए प्रज्ञापनासूत्र के प्रकृतिपद को देख लेना आवश्यक है।
अब भाव के विषय में कहते हैं
सिद्धाणणंतभागो य, अणुभागा भवन्ति उ । सव्वेसु वि पएसग्गं, सव्वजीवेसु इच्छियं ॥ २४ ॥ सिद्धानामनन्तभागश्च, अनुभागा भवन्ति
सर्वेष्वपि प्रदेशाग्रं सर्वजीवेभ्योऽतिक्रान्तम् ॥ २४ ॥
पदार्थान्वयः–सिद्धाण–सिद्धों के, णंतभागो - अनन्तवें भागमात्र, अणुभागा - अनुभाग, रसविशेष, हवंति - होते हैं, सव्वेसु वि - सब अनुभागों में, पएसग्गं प्रदेशों के अग्र - परमाणु का परिमाण, सव्वजीवेसु - सब जीवों से इच्छियं-अधिक हैं, तु - पादपूर्ति में है।
मूलार्थ - सिद्धों के अनन्तवें भागमात्र कर्मों का अनुभाग अर्थात् रस होता है, फिर सब अनुभागों में कर्म-परमाणु सब जीवों से अधिक हैं ।
टीका-पूर्व गाथा में कहा जा चुका है कि एक समय के कर्माणु अभव्य आत्माओं से अनन्तगुणा अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भागमात्र हैं, अर्थात् सिद्धों से, एक समय के कर्म - परमाणु अनन्तगुणा न्यून हैं अतः प्रस्तुत गाथा में उसी बात को लेकर कहते हैं कि जब एक समय के कर्माणु सिद्धों से अनन्तगुणा न्यून हैं तो उन कर्माणुओं का अनुभाग भी सिद्धों से अनन्तगुणा न्यून है, परन्तु अनुभागविषयक वे कर्माणु अभव्य आत्माओं से अनन्तगुणा अधिक हैं। कारण यह है कि अनन्त आत्माओं के आत्म- प्रदेशों पर अनन्त कर्माणुओं की वर्गणाएं हैं, जब कि एक के साथ अनन्त कर्म-वर्गणओं का सम्बन्ध हो रहा है तब अनन्त जीवों से कर्मों के परमाणु आप ही अनन्तगुणा अधिक हो गए ।
यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि प्रदेशाग्र परमाणु का ही नाम है, बुद्धि द्वारा विभाग किए जाने पर जब वह परमाणु अविभाज्य दशा में आ जाता है तब उसे ही प्रदेशाग्र कहा जाता है। वह प्रदेशाग्र
१. "नामगोयाणं जहण्णेण अट्ठमुहुत्ता" [भगवती सू. श. ६ उ. ३, सू. २३६ ] " जसोकित्ति नामाएणं पुच्छा ? गोयमा ! जहणेण अट्ठमुहुता । उच्चागोयस्स पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठमुहुत्ता" [ प्रज्ञापना सू० प० २३, उ. २, सू० २९४ में ] ।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३०६ ] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं