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लेश्या में आए हुए केवल एक समय हुआ हो तो उस समय अर्थात् लेश्या की परिणति के समय में यह जीव काल नहीं करता-परलोक गमन नहीं करता।
प्रथम समय से तात्कालिक समय का ग्रहण है, इसीलिए तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। तात्पर्य यह है कि लेश्या की प्रथम समय की परिणति में कोई भी जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। अब चरम समय के विषय में कहते हैं
लेसाहिं सव्वाहि, चरिमे समयम्मि परिणयाहिं तु । . न हु कस्सइ उववाओ, परे भवे अस्थि जीवस्स ॥ ५९॥
लेश्याभिः सर्वाभिः, चरमे समये परिणताभिस्तु ।
न खलु कस्याप्युत्पत्तिः, परे भवेऽस्ति जीवस्य ॥ ५९ ॥ पदार्थान्वयः-लेसाहि-लेश्या, सव्वाहि-सर्व, चरिमे-अन्त, समयम्मि-समय में, परिणयाहिं परिणत होने से, न हु-नहीं, कस्सइ-किसी भी, जीवस्स-जीव की, उववाओ-उत्पत्ति, अत्थि-होती, परे भवे-परभव में।
मूलार्थ-सर्व लेश्याओं की परिणति में अन्तिम समय पर किसी भी जीव की उत्पत्ति नहीं होती।
टीका-छहों लेश्याओं में से किसी भी लेश्या का यदि चरम अर्थात् अन्तिम समय परिणत होने का उदय हो रहा है और अन्य लेश्या के परिणत होने का समय निकट आ रहा है, तो उस चरम समय की किसी भी लेश्या की परिणति में किसी भी जीव की परलोक में उत्पत्ति नहीं होती। तात्पर्य यह है कि लेश्या के परिवर्तन में यदि एक भी समय शेष रह गया हो तो उस समय में भी जीव का परलोकगमन नहीं होता।
दोनों (५८-५९) गाथाओं का संक्षेप में भावार्थ यह है कि-मृत्यु के समय आगामी जन्म के लिए जब इस जीवात्मा की लेश्याओं में परिवर्तन होता है, उस समय प्रथम और अन्तिम समय में किसी भी जीव की उत्पत्ति नहीं होती।
तो फिर किस समय में जीव की उत्पत्ति अर्थात् परलोक-गमन होता है? अब इस प्रश्न के समाधान में निम्नलिखित गाथा का उल्लेख करते हैं, यथा
अंतमहत्तम्मि गए, अंतमहत्तम्मि सेसए चेव । लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं ॥ ६० ॥ अन्तर्मुहूर्ते गते, अन्तर्मुहूर्ते शेषे चैव । लेश्याभिः परिणताभिः, जीवा गच्छन्ति परलोकम् ॥ ६०.॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३४० ] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं