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से, सुक्काए-शुक्ललेश्या की स्थिति होती है और, तेत्तीस-तेंतीस सागरोपम से, मुहुत्तमब्भहिया-एक मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट स्थिति है।
मूलार्थ-यावन्मात्र पद्मलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति कही गई है, उससे एक समय अधिक प्रमाण शुक्ललेश्या की जघन्य स्थिति होती है तथा शुक्ललेश्या की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक तेंतीस सागरोपम की होती है।
___टीका-शुक्ललेश्या की यह जघन्य स्थिति लान्तक-देवलोक की अपेक्षा से कही गई है और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन सर्वार्थसिद्ध-विमान की अपेक्षा से किया गया समझना चाहिए।
इस प्रकार स्थिति-द्वार का वर्णन करने के अनन्तर अब गति-द्वार का निरूपण करते हैं,
यथा
किण्हा नीला काऊ, तिन्निवि एयाओ अहम्मलेसाओ । .. एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जई ॥ ५६ ॥ कृष्णा नीला कापोता, तिस्रोऽप्येता अधर्मलेश्याः ।
एताभिस्तिसृभिरपि जीवो, दुर्गतिमुपपद्यते ॥ ५६ ॥ पदार्थान्वयः-किण्हा-कृष्णलेश्या, नीला-नीललेश्या, काऊ-कापोतलेश्या, एयाओ-ये, तिन्नि वि-तीनों ही लेश्याएं, अहम्मलेसाओ-अधर्म-लेश्या हैं, एयाहि-इन, तिहि वि-तीनों लेश्याओं से, जीवो-जीव, दुग्गइं-दुर्गति को, उववज्जई-प्राप्त होता है-दुर्गति में उत्पन्न होता है। ____ मूलार्थ-कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों अधर्मलेश्या हैं, इन तीनों लेश्याओं से यह जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है। ___टीका-कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या ये तीनों ही अधर्मलेश्या के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा इन्हें अप्रशस्त लेश्या भी कहते हैं। इन लेश्याओं में परिणत हुआ प्राणी यदि काल करता है तो वह दुर्गति अर्थात् नरक, तिर्यञ्चादि-गतियों में उत्पन्न होता है। अधर्म का फल दुर्गति है, अतएव इन अधर्म-लेश्याओं के प्रभाव से यह जीव अशुभ गति का ही बन्ध करता है।
'दुग्गइं' यहां पर सुप् का व्यत्यय है। अब अवशिष्ट तीन लेश्याओं के विषय में कहते हैं, यथा
तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई ॥ ५७ ॥ तैजसी पद्मा शुक्ला, तिस्रोऽप्येता धर्मलेश्याः । . एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, सुगतिमुपपद्यते ॥ ५७ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३३८] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं