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तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के उपाश्रय में संयमशील साधु कभी ठहरने का विचार न करे। ...
इस प्रकार के स्थान में ठहरने से जिस दोष की उत्पत्ति होती है, अब उसके विषय में कहते हैं, यथा
इंदियाणि उ भिक्खुस्स, तारिसम्मि उवस्सए । दुक्कराइं निवारेउं, कामरागविवड्ढणे ॥५॥ इन्द्रियाणि तु भिक्षोः, तादृशे उपाश्रये ।
दुष्कराणि निवारयितुं, कामरागविवर्द्धने ॥ ५ ॥ पदार्थान्वयः-इंदियाणि-इन्द्रियों का, उ-जिससे, भिक्खुस्स-भिक्षु को, तारिसम्मि-इस प्रकार के, उवस्सए-उपाश्रय में, दुक्कराइं-दुष्कर है, निवारेउं-निवारण करना, कामराग-कामराग के, विवड्ढणे-बढ़ाने वाले।
मूलार्थ-इस प्रकार के कामराग-विवर्द्धक उपाश्रय में भिक्षु के लिए इन्द्रियों का संयम रखना दुष्कर है।
टीका-शास्त्रकार कहते हैं कि इस प्रकार का उपाश्रय-निवासस्थान कामराग का विवर्द्धक होता है अर्थात् उसमें निवास करने से आत्मा में सूक्ष्मरूप से रहे हुए कामरागादि के उत्तेजित हो उठने की हर समय संभावना बनी रहती है तथा इन्द्रियों का विषयों की ओर प्रवृत्त हो जाना भी कोई आश्चर्य की बात नहीं, अतः सचमुच ही भिक्षु को ऐसे स्थान में अपना आत्म-संयम रखना कठिन हो जाता है। तात्पर्य यह है कि ऐसे काम-वर्द्धक स्थान में रहने से भिक्षु को हानि के सिवाय लाभ कुछ नहीं होता।
किसी-किसी प्रति में 'निवारेउ' के स्थान पर 'धरेउं-धारयितुं' ऐसा पाठ भी देखने में आता है। 'धारेउं' यह पाठ होने पर इसका अर्थ हो जाता है कुमार्ग में जाती हुई इन्द्रियों को सन्मार्ग में धारण करना दुष्कर है।
तो फिर किस प्रकार के स्थान में साधु को निवास करना चाहिए? अब इस विषय में अर्थात् साधु के निवासयोग्य स्थान के विषय में कहते हैं
सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व इक्कओ । पइरिक्के परकडे वा, वासं तत्थाभिरोयए ॥६॥ श्मशाने शून्यागारे वा, वृक्षमूले वैककः । .
प्रतिरिक्ते परकृते वा, वासं तत्राभिरोचयेत् ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः-सुसाणे-श्मशान में, वा-अथवा, सुन्नगारे-शून्यागार में, अर्थात् शून्य गृह में, व-अथवा, इक्कओ-एकाकी तथा राग-द्वेष से रहित होकर, रुक्खमूले-वृक्ष के मूल में, पइरिक्के-एकान्त स्थान में, वा-अथवा, परकडे-परकृत स्थान में, तत्थ-इन श्मशानादि स्थानों में, वासं-निवास करने की, अभिरोयए-अभिरुचि करे।
मूलार्थ-अतः श्मशान में, शून्य गृह में, किसी वृक्ष के नीचे अथवा परकृत एकान्त स्थान में ही एकाकी तथा राग-द्वेष से रहित होकर, साधु निवास करने की इच्छा करे।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३४६ ] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं