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टीका-जब कि उक्त प्रकर के स्थान में निवास करने का निषेध है तो फिर साधु किस प्रकार के स्थान में निवास करे, इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि साधु श्मशान भूमि में रहे, अथवा शून्य गृह में वा किसी वृक्ष के समीप या किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा अपने लिए बनाए हुए एकान्त स्थान में ठहरे। .
'पइरिक्के' यह एकान्त अर्थ का वाचक देशी प्राकृत का शब्द है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं
फासुयम्मि अणाबाहे, इत्थीहि अणभिदुए ।
तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परमसंजए ॥ ७ ॥ . प्रासुके अनाबाधे, स्त्रीभिरनभिद्रुते ।
तत्र सङ्कल्पयेद्वासं, भिक्षुः परमसंयतः ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः-फासुयम्मि-प्रासुक स्थान में, अणाबाहे-बाधारहित स्थान में, इत्थीहिं-स्त्रियों से, अणभिदुए-अनाकीर्ण अर्थात् स्त्रियों के उपद्रवों से रहित, तत्थ-वहां, भिक्खू-भिक्षु, परमसंजए-परम संयमी, वासं-निवास का, संकप्पए-संकल्प करे।
मूलार्थ-प्रासुक अर्थात् शुद्ध, जीवादि की उत्पत्ति से रहित, अनाबाध-जीवादि की विराधना वा स्व-पर-पीड़ा से रहित और स्त्रियों की आकीर्णता से रहित जो स्थान है, वहां पर संयमशील भिक्षु निवास करने का संकल्प करे। _____टीका-जिस स्थान में जीवों की उत्पत्ति न होती हो तथा जो स्थान स्व-पर के लिए बाधाकारक न हो एवं जिस स्थान में स्त्रियों का आवागमन न हो, ऐसे निर्दोष स्थान में संयमशील भिक्षु के लिए निवास करना उचित है, यही इस गाथा का भावार्थ है।
यद्यपि भिक्षु और संयत ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं, तथापि भिक्षु के साथ जो संयत विशेषण दिया गया है उसका तात्पर्य शाक्यादि भिक्षु-समुदाय की निवृत्ति से है, अर्थात् भिक्षु शब्द से यहां पर जैन भिक्षु का हो ग्रहण अभीष्ट है।
यहां पर इतना और ध्यान रहे कि पूर्व गाथा में भिक्षु के निवासयोग्य जो श्मशानादि स्थान लिखे हैं उन्हीं के विषय में यह परिमार्जना है, अर्थात् वे श्मशानादि स्थान भी निर्दोष, बाधा और स्त्री आदि के उपद्रवों से रहित होने चाहिएं।
अब परकृत एकान्त स्थान में ठहरने का हेतु बताते हुए फिर इसी विषय में कहते हैं, यथा
न सयं गिहाई कुव्विज्जा, णेव अन्नेहिं कारए । गिहकम्मसमारंभे, भूयाणं दिस्सए वहो ॥ ८ ॥
न स्वयं गृहाणि कुर्यात्, नैवान्यैः कारयेत् ।
गृहकर्मसमारम्भे, भूतानां दृश्यते वधः ॥ ८ ॥ पदार्थान्वयः-सयं-स्वयमेव, गिहाई-गृह, न कुव्विज्जा-न बनाए, णेव-न ही, अन्नेहि-दूसरों
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३४७] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं