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अह अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं |
अथ अनगाराध्ययनं नाम पञ्चत्रिंशत्तममध्ययनम्
गत चौंतीसवें अध्ययन में अप्रशस्त लेश्याओं के त्याग और प्रशस्त लेश्याओं में अनुराग करने का उपदेश दिया गया है, परन्तु इसके लिए यथोचित भिक्षु-गुणों को धारण करने की आवश्यकता है, अतः इस आगामी पैंतीसवें अध्ययन में भिक्षु के गुणों का निरूपण किया जाता है जिसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है
सुणेह मे एगग्गमणा, मग्गं बुद्धेहि देसियं । जमायरंतो भिक्खू, दुक्खाणंतकरे भवे ॥ १ ॥
श्रृणुत मे एकाग्रमनसा, मार्ग बुद्धैर्देशितम् ।
यमाचरन्भिक्षुः, दुःखानामन्तकरो भवेत् ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः-सुणेह-सुनो, एगग्गमणा-एकाग्रमन होकर, मग्गं-मार्ग को, मे-मुझसे-जो मार्ग, बुद्धेहि-बुद्धों ने, देसियं-उपदेशित किया है, जं-जिस मार्ग का, आयरंतो-आचरण करता हुआ, भिक्खू-भिक्षु, दुक्खाण-दुःखों का, अंतकरे-अन्त करने वाला, भवे-होता है।
मूलार्थ-हे शिष्यो ! बुद्धों-सर्वज्ञों के द्वारा उपदेश किए गए उस मार्ग को तुम मुझसे सुनो, जिस मार्ग का अनुसरण करने वाला भिक्षु सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है।
टीका-आचार्य कहते हैं कि जो मार्ग केवली, श्रुतकेवली अथवा गणधरों आदि के द्वारा उपदिष्ट है तथा जिस मार्ग का अनुसरण करके साधु सर्व प्रकार के दु:खों का नाश कर देता है, उस मार्ग को तुम मेरे से एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो।
.. प्रस्तुत गाथा में वर्णनीय विषय को सर्वज्ञ-भाषित और दु:ख-विनाशक बताने से उसकी प्रामाणिकता और सप्रयोजनता व्यक्त की गई है। 'बुद्ध' शब्द का अर्थ यहां पर सर्व वस्तुओं के स्वरूप को यथावत् जानने वाला-सर्वज्ञ महापुरुष है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३४३] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं