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पदार्थान्वयः-रूवाणुगासा-रूप की आशा के, अणुगए-अनुगत हुआ, जीवे-जीव, चराचरे-चर और अचर प्राणियों की, हिंसइ-हिंसा करता है, अणेगरूवे-अनेक प्रकार के, ते-उन जीवों को, चित्तेहि-नाना प्रकार के, बाले-अज्ञानी जीव, परितावेइ-परिताप देता है, पीलेइ-पीड़ा देता है, अत्तट्ठ-आत्मा का अर्थ, गुरू-गुरु है जिसका, किलिट्ठे-राग से पीड़ित हुआ।
· मूलार्थ-रूप की आशा के वश हुआ अज्ञानी जीव जंगम और स्थावर प्राणियों की नाना प्रकार से हिंसा करता है, उनको परिताप देता है तथा अपना ही प्रयोजन सिद्ध करने वाला रागी जीव नाना प्रकार से उन जीवों को पीड़ा पहुंचाता है।
टीका-राग की अनर्थमूलकता का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि रूप की आशा के अनुगत हुआ जीव जंगम और स्थावर प्राणियों की अनेक प्रकार से हिंसा करने लग जाता है। तात्पर्य यह है कि जब उसकी आत्मा मनोज्ञ रूप की आशा में लग जाती है तब उसकी प्राप्ति के लिए वह चराचर प्राणियों की हिंसा करने में कोई विवेक नहीं करता तथा अनेक प्रकार से उनको परिताप देता है, कष्ट पहुंचाता है और अनेक प्रकार की बाधाओं का स्थान बनाता है, क्योंकि वह स्वार्थी है, उसको केवल अपना ही प्रयोजन सिद्ध करना इष्ट है, इसलिए वह अज्ञानी जीव है। कारण यह है कि उसकी आत्मा उत्कट राग से अत्यन्त व्याकुल हो रही होती है। यद्यपि परिताप और पीड़ा ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं, तथापि परिताप से सर्व देश और पीड़ा से एक देश का ग्रहण करना यहां पर अभिप्रेत है।
सारांश यह है कि सर्व देश में कष्ट पहुंचाना परिताप और एक देश में कष्ट देना पीड़ा है।
गाथा में दिया गया ‘अनेकरूप' पद जातिभेद से जीवों की विभिन्नता का परिचायक है, अर्थात् जातिभेद से भिन्न-भिन्न जीव अनेक प्रकार के कहे गए हैं।
अब फिर इसी विषय में कहते हैंरूवाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसंनिओगे । वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे ॥ २८ ॥
रूपानुपातेन परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे ।
व्यये वियोगे च कथं सुखं तस्य, सम्भोगकाले चातृप्तलाभः ॥ २८ ॥ पदार्थान्वयः-रूवाणुवाएण-रूपविषयक राग होने से, परिग्गहेण-मूर्छाभाव से, उप्पायणे-उत्पादन में, रक्खणे-रक्षण में, संनिओगे-संनियोग में, वए-उसके विनाश होने पर, य-और, विओगे-वियोग के समय, से-उसी रागी पुरुष को, कह-कहां, सुह-सुख है, संभोगकाले-संभोगकाल में, य-फिर, अतित्तलाभे-अतृप्त-लाभ ही रहता है।
मूलार्थ-रूपविषयक मूर्छाभाव होने से, फिर उसके उत्पादन और रक्षण के संनियोग में तथा विनाश और वियोग में उस रागी जीव को कहां सुख है? तथा संभोगकाल में वह अतृप्तलाभ ही रहता है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२३६] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं