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टीका-प्रस्तुत गाथा में द्वेष के फल का वर्णन करने के साथ-साथ प्रिय और अप्रिय गन्ध में मानी हुई दु:खजनकता का भी निषेध किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि ऊपर की गाथाओं में सुगन्ध और दुर्गन्ध को जो राग और द्वेष का कारण बताया गया है वह परम्परा है, साक्षात् नहीं। कारण यह है कि राग-द्वेष की परिणति तो मुख्यता आत्मा में होती है और सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध तो उसमें निमित्त मात्र हैं, अतएव आत्मा में सुख अथवा दु:ख का भान होता है उसका कारण भी राग-द्वेष का परिणाम विशेष ही है। यह आत्मा अपने तीव्र भावों से जिस प्रकार के कर्मों का बन्ध करती है उसी के अनुरूप इसको विपाकदशा में न्यूनाधिक फल की प्राप्ति होती है। इसलिए सुगन्ध या दुर्गन्ध को दु:ख का हेतु न मानकर राग-द्वेष को ही उसका हेतु मानना चाहिए, यही इस गाथा का तात्पर्य है।
अब राग और द्वेष से उत्पन्न होने वाले अन्य दोषों का वर्णन करते हैं, यथाएगंतरत्ते रुइरंसि गंधे,. अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ५२ ॥
एकान्तरक्तो रुचिरे गन्धे, अतादशे स करोति प्रद्वेषम् ।
दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागी ॥ ५२ ॥ पदार्थान्वयः-रुइरंसि-रुचिर, अर्थात् प्रिय, गंधे-गन्ध में, एगंतरत्ते-एकान्त अनुरक्त, अतालिसे-अरुचिर गन्ध में, से-वह, पओसं-प्रद्वेष, कुणई-करता है, बाले-अज्ञानी जीव, दुक्खस्स संपीलं-दु:खसम्बन्धी पीड़ा को, उवेइ-पाता है, तेण-उससे, विरागो-विरक्त आत्मा, मुणी-मुनि, न लिप्पई-लिप्यमान नहीं होता। . मूलार्थ-जो जीव रुचिर गन्ध में अत्यन्त आसक्त है और दुर्गन्ध में द्वेष करता है, वह अज्ञानी जीव दुःखसम्बन्धी पीड़ा को प्राप्त होता है, परन्तु जो विरक्त मुनि है वह इस पीड़ा से लिप्त नहीं होता, अर्थात् उसको यह दुःख-बाधा नहीं सताती।
टीका-प्रस्तुत गाथा में राग-द्वेषयुक्त और राग-रहित आत्मा में जो अन्तर हैं उसका दिग्दर्शन कराया गया है। जो आत्मा राग-द्वेष से युक्त है वह दु:खों का भाजन बनती है और द्वेष से रहित, अर्थात् विरक्त आत्मा को दुःख का सम्पर्क नहीं होता, यही इस गाथा का तात्पर्य है।
अब राग को हिंसादि आस्रवों का कारण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं किगंधाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ णेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिढें ॥५३ ॥
गन्धानुगाशानुगतश्च जीवः, चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान् ।
चित्रैस्तान्परितापयति बालः, पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः ॥ ५३ ॥ पदार्थान्वयः-गंधाणुगासाणुगए-सुगन्ध की आशा के पीछे भागता हुआ, जीवे-जीव, चराचरे-चर और अचर, अणेगरूवे-अनेक प्रकार के जीवों की, हिंसइ-हिंसा करता है, चित्तेहि-नाना प्रकार के
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उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२५१] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं