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सारांश यह है कि क्षीण मोहगुण-स्थानवर्ती जीवात्मा ज्ञानावरणीयादि तीनों कर्मों का एक ही समय में क्षय कर डालती है।
इस प्रकार उक्त कर्मों के क्षय करने के अनन्तर जिस गुण की प्राप्ति होती है, अब सूत्रकार उसका दिग्दर्शन कराते हैं,
यथा
सव्वं तओ जाणइ पास य, अमोहणे होइ निरंतराए । अणासवे झाण- समाहिजुत्ते, आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे ॥ १०९ ॥
सर्वं ततो जानाति पश्यति च, अमोहनो भवति निरन्तरायः । अनास्त्रवो ध्यानसमाधियुक्तः, आयुः क्षये मोक्षमुपैति शुद्धः ॥ १०९ ॥
पदार्थान्वयः - तओ - तदनन्तर, (आत्मा) सव्वं सर्व को, जाणइ - जानती है, य-और, पासए - सर्व को देखती है, अमोहणे - मोह-रहित, निरंतराए - अन्तरायरहित, होइ - होती है, अणासवे - आस्रवों से रहित, झाणसमाहिजुत्ते - शुक्लध्यान और समाधि से युक्त होती है, आउक्खए - आयुकर्म के क्षय होने पर, सुद्धे - शुद्ध होकर, मोक्खं- मोक्षपद को, उवेइ-प्राप्त हो जाती है।
मूलार्थ - तदनन्तर यह आत्मा सब कुछ जानती है, सब कुछ देखती है तथा मोह और अन्तराय से सर्वथा रहित हो जाती है। फिर आस्रवों से रहित, ध्यान और समाधि से युक्त होकर परम विशुद्ध दशा को प्राप्त होती हुई आयु तथा नाम-कर्म के समाप्त होने पर मोक्ष-पद को प्राप्त हो जाती है।
टीका - मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर जिस समय यह आत्मा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इन तीनों ही कर्मों का क्षय कर देती है, उस समय वह सर्वज्ञ ओर सर्वदर्शी बन जाती है। इसके अतिरिक्त मोहनीय और अन्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले क्षायिक सम्यक्त्व के साथ-साथ उसमें रही हुई अनन्तानन्त शक्तियां भी आविर्भूत हो जाती हैं। फिर सर्व प्रकार के आस्रवों से रहित होकर शुक्लध्यानरूप समाधि से युक्त होती हुई आयुकर्म उपलक्षण से - वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म के क्षय हो जाने पर परम विशुद्ध दशा को प्राप्त करती हुई वह परम कल्याणस्वरूप मोक्षपद को प्राप्त हो जाती है।
यहां पर इतना स्मरण रहे कि केवली में ज्ञान दर्शन दोनों का उपयोग एक ही समय में नहीं होता, किन्तु भिन्न-भिन्न समयों में होता है, ऐसा आगमों का और आगमानुसारी वृत्तिकार का मत है। यह बात गाथा में आए हुए 'चकार' से भी ध्वनित की गई है।
इसके अतिरिक्त केवली के ज्ञान और दर्शन के पौर्वापर्य के विषय में पूर्वाचार्यों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कुछ आचार्य तो दर्शन को पहले और ज्ञान को पीछे मानते हैं, तथा कुछ आचार्यों के मत में ज्ञानोपयोग को प्रथम और दर्शन को उसके अनन्तर स्वीकार किया गया है। इस विषय की अधिक चर्चा कहीं अन्यत्र की जाएगी ।
मोक्ष - प्राप्ति के अनन्तर उस आत्मा की जो अवस्था होती है, अब सूत्रकार उसके विषय
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २८३] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं