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टीका-दर्शनावरणीय कर्म के उत्तर भेदों का वर्णन करते हुए प्रथम पांच प्रकार की निद्राओं का वर्णन किया गया है, तात्पर्य यह है कि दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर-प्रकृतियां-नौ हैं। उनमें से निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि, इन पांच उत्तर भेदों का प्रस्तुत गाथा में वर्णन किया गया है। .
१. निद्रा-जो जीव सोया हुआ थोड़ी-सी आवाज से जाग पड़ता है उसकी नींद को निद्रा कहते हैं, तथा जिस कर्म के प्रभाव से ऐसी निद्रा होती है, उस कर्म को भी निद्रा कहते हैं।
२. निद्रानिद्रा-जो जीव सोया हुआ, बड़े जोर से चिल्लाने अथवा हाथ से हिलाने पर भी बड़ी कठिनता से जागता है उस जीव की नींद को निद्रानिद्रा कहते हैं, तथा जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आए उसका नाम भी निद्रानिद्रा है।
३. प्रचला-जिसको खड़े-खड़े या बैठे-बैठे नींद आती है उसकी नींद को प्रचला कहते हैं, ऐसी निद्रा जिस कर्म के प्रभाव से आती है उस कर्म का नाम प्रचला है।
४. प्रचलाप्रचला-चलते-फिरते जो नींद आती है उसको प्रचलाप्रचला कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आए उस कर्म को प्रचलाप्रचला कहा है।
५. स्त्यानगृद्धि-जो जीव दिन में अथवा रात में विचारे हुए काम को निद्रा की हालत में ही कर डालता है, उसकी नींद का नाम स्त्यानगृद्धि या स्त्यानर्द्धि है। ऐसी निद्रा का आना जिस कर्म के प्रभाव का फल है उसे भी स्त्यानगृद्धि या स्त्यानर्द्धि कहते हैं। ___ इस निद्रा में जीव को वासुदेव के आधे बल की प्राप्ति होती है। यह निद्रा अतीव निकृष्ट मानी गई है, क्योंकि इस निद्रा वाला जीव मरने पर अवश्य ही नरक में जाता है। इसलिए जिस आत्मा में राग-द्वेष के उदय की अत्यन्त बहुलता होती है उसी को इस पांचवीं निद्रा का आवेश होता है, तथा प्रथम निद्रा को अशुभ नहीं माना गया, क्योंकि वह साता की भी साधक है। अब उक्त कर्म के दूसरे भेदों का वर्णन करते हैं, यथा
चक्खुमचक्खूओहिस्स, सणे केवले य आवरणे । एवं तु नवविगप्पं, नायव्वं दंसणावरणं ॥ ६ ॥
चक्षुरचक्षुरवधेः, दर्शने केवले चावरणे ।
एवं तु नवविकल्पं, ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः-चक्खु-चक्षु, अचक्खू-अचक्षु, ओहिस्स-अवधि के, दंसणे-दर्शन में, य-और, केवले-केवल ज्ञान में, आवरणे-आवरणरूप, एवं-इस प्रकार, नवविगप्पं-नौ विकल्प-अर्थात् भेद, दंसणावरणं-दर्शनावरण के, नायव्वं-जानने चाहिएं, तु-पादपूर्ति में।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २९१] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं