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गया है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों के द्वारा ये कर्म बांधे जाते हैं। इनके द्वारा बंधा हुआ जीव इस संसार में नाना प्रकार के स्वरूपों को धारण करता है। इस कथन से प्रतिपाद्य विषय के फल का निर्देश किया गया है। इसके अतिरिक्त उक्त गाथा में आनुपूर्वी और यथाक्रम, इन दो शब्दों का उल्लेख हुआ है। यद्यपि ये दोनों शब्द प्रायः एक ही अर्थ के बोधक प्रतीत होते हैं, तथापि यथाक्रम शब्द के पृथक् उल्लेख करने से यहां पर आनुपूर्वी का उससे भिन्न अर्थ ही सूत्रकार को अभिप्रेत है, ऐसा प्रतीत होता है। यथा-आनुपूर्वी का तीन प्रकार से वर्णन किया गया है (१) आनुपूर्वी (२) पश्चानुपूर्वी और (३) अनानुपूर्वी। यहां पर जो कर्मों का वर्णन किया जाएगा वह आनुपूर्वी से किया जाएगा और वह यथाक्रम होगा। अब प्रस्तावित कर्मों के नाम निर्देश करते हैं, यथा
नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा । वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ॥२॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । एवमेयाइं कम्माइं, अद्वैव उ समासओ ॥ ३ ॥
ज्ञानस्यावरणीयं, दर्शनावरणं तथा । वेदनीयं तथा मोहं, आयुःकर्म तथैव च ॥२॥ नामकर्म च गोत्रं च, अन्तरायं तथैव च ।
एवमेतानि कर्माणि, अष्टैव तु समासतः ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः-नाणस्सावरणिज्जं-ज्ञान का आवरण करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म, दसणावरणं-दर्शनावरणीय, तहा-तथा, वेयणिज्जं-वेदनीय कर्म, तहा-तथा, मोहं-मोहनीय कर्म, य-और, तहेव-उसी प्रकार, आउकम्म-आयुकर्म, च-और, नामकम्म-नामकर्म, च-तथा, गोयं-गोत्रकर्म, य-पुनः, तहेव-उसी प्रकार, अंतरायं-अन्तरायकर्म, एवं-इस प्रकार, एयाई-ये, अद्वैव-आठ ही, कम्माइं-कर्म, समासओ-संक्षेप से कहे हैं, उ-पादपूर्ति में है।
मूलार्थ-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ ही कर्म संक्षेप से कहे गए हैं।
टीका-प्रस्तुत गाथा में कर्मों की आठ मूल प्रकृतियों का नामनिर्देशपूर्वक संक्षेप से उल्लेख किया गया है।
१. ज्ञानावरणीय-जिसके द्वारा पदार्थों का स्वरूप जाना जाए उसका नाम ज्ञान है और जो कर्म ज्ञान का आच्छादन करने वाला हो उसको ज्ञानावरणीय कहते हैं। जैसे सूर्य को बादल आच्छादित कर लेता है, अथवा जैसे नेत्रों की दर्शन-शक्ति को कपड़ा आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार जिन
- उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२८७] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं