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गया है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों के जितने भी विषय हैं, उनका प्रभाव राग-द्वेष से युक्त जो आत्मा है उसी पर पड़ता है अर्थात् राग-द्वेष विशिष्ट आत्मा ही उसे आकर्षित होती है, किन्तु जिस आत्मा में राग-द्वेष का अभाव है, उसके समक्ष ये सब अकिंचित्कर हैं।।
अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं किएवं स-संकप्पविकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स । अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा ॥ १०७ ॥ एवं स्वसङ्कल्पविकल्पनासु, संजायते समतोपस्थितस्य ।
अर्थाश्च सङ्कल्पयतस्ततस्तस्य, प्रहीयते कामगुणेषु तृष्णा ॥ १०७ ॥ पदार्थान्वयः-एवं-उक्त प्रकार से, ससंकप्पविकप्पणासु-स्वसंकल्प की विकल्पना में ये सब राग-द्वेष और मोह जन्य विषयजाल केवल दोषरूप ही हैं, इस प्रकार की भावना में, उवट्ठियस्स-उद्यत हुए को, समय-समता-मध्यस्थ भाव, संजायई-उत्पन्न हो जाता है, य-और, अत्थे-इन्द्रियों के रूपादि अर्थों को, संकप्पयओ-शुभ ध्यान से विचार करने वाला, तओ-तदनन्तर, से-उसकी, कामगुणेसु-कामगुणों में, तण्हा-तृष्णा, पहीयए-नष्ट हो जाती है।
मूलार्थ-उक्त प्रकार से, 'राग-द्वेष और मोहरूप जो अध्यवसाय हैं, वे सब अनर्थ के कारण हैं' इस प्रकार की भावना में उद्यत हुए जीव को समता अर्थात् मध्यस्थभाव की प्राप्ति हो जाती है, तथा अर्थों के विषय में सद्विचार करने के अनन्तर उस आत्मा की कामगुणों में बढ़ी हुई तृष्णा सर्व प्रकार से नष्ट हो जाती है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में कामभोगादि के विषय में बढ़ी हुई तृष्णा के क्षय करने का प्रकार बताया गया है। राग-द्वेष और मोहादि के विषय में दोषों का उद्भावन करने से अर्थात् इन राग-द्वेषादिजन्य कामभोगादि विषयों में नाना प्रकार के दोषों को देखने से विचारशील आत्मा में समतागुण की प्राप्ति होती है अर्थात् वह इनसे विरक्त होती हुई इनमें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखती। इसके अतिरिक्त मध्यस्थभाव को प्राप्त हुई वह आत्मा शब्दादि विषयों के सम्बन्ध में यह भी विचार करती है कि जितने भी शब्दादि विषय हैं, वे सब निरपराध हैं, व्यक्तिरूप से इनका कोई दोष नहीं, दोष तो आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग और द्वेष का है, उसी से कर्मों का बन्ध होता है, ये काम-भोगादि विषय तो केवल निमित्तमात्र हैं। इस प्रकार की सद्विचारणा से उस आत्मा की काम-भोगादि में बढ़ी हुई तृष्णा भी क्षीण हो जाती है अर्थात् काम-भोगादिजन्य अनर्थों का विचार करती हुई वह इनके विषय में विरक्त हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो काम-भोगादिविषयक तृष्णा के क्षय हो जाने से इस जीवात्मा को बादर-संपराय नामक गुणस्थान की प्राप्ति हो जाती है। तात्पर्य यह है कि शुभध्यानविषयक अध्यवसाय उत्पन्न होने के अनन्तर ही उस जीव को मध्यस्थभाव की प्राप्ति हो जाती है, फिर उत्तरोत्तर गुणस्थानों की प्राप्ति से लोभ के पर्याय भी क्षीण होते चले जाते हैं तथा यदि उक्त प्रकार से एक काल में ही
'उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२८१] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं