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के प्रभाव की भी इच्छा न करे, इंदियचोरवस्से-इन्द्रियरूप चोरों के वशीभूत हुआ, एवं-इस प्रकार के, वियारे-विकारों को-जो, अमियप्पयारे-अमित प्रकार के-प्रमाणरहित हैं उनको, आवज्जई-प्राप्त होता है।
मूलार्थ-अपने शरीर की सेवा के लिए योग्य शिष्य की भी इच्छा न करे। दीक्षा लेकर पश्चात्ताप न करे और तप के प्रभाव की इच्छा न करे। क्योंकि इन्द्रियरूप चोरों के वशीभूत हुआ यह जीव इस प्रकार के असंख्य दोषों को प्राप्त हो जाता है।
टीका-इस गाथा में भगवान् ने तीन बातों की शिक्षा दी है। जैसे कि-१. 'मुझे एक ऐसे शिष्य की आवश्यकता है जो कि मेरी सेवा-शुश्रूषा अच्छी तरह से कर सके' इस प्रकार की इच्छा रखने वाले साधु के प्रति भगवान् कहते हैं कि साधारण तो क्या! किन्तु स्वाध्याय आदि करने के योग्य और विनयादि सर्व प्रकार के गुणों से सम्पन्न, ऐसे शिष्य की भी साधु अपनी सेवा के लिए इच्छा न करे। तात्पर्य यह है कि शरीरादि पर ममत्व लाकर, अयोग्य शिष्य की बात दूर रही, योग्य शिष्य की भी लालसा मन में न रखे। '
२. संयम ग्रहण करने के अनन्तर पश्चात्ताप न करे। जैसे कि-'हा ! मैंने दीक्षा क्यों ली, हा ! इस काय-क्लेश को मैंने क्यों अंगीकार किया' इत्यादि।
३. इस लोक में यश-कीर्ति के लिए और परलोक में चक्रवर्ती सम्राट् और इन्द्रादि की पदवी प्राप्त करने के लिए संभूत यति की तरह तप के प्रभाव की भी इच्छा न करे अर्थात् किसी निदान को लेकर तपश्चर्या न करे।
अब इसमें हेतु बताते हुए कहते हैं कि यदि इस प्रकार के आचरण न करेगा तो इन्द्रियरूप चोरों के हाथों में पड़कर इस प्रकार के अनेकानेक विकारों को प्राप्त हो जाएगा इत्यादि। यद्यपि यह कथन जिन-कल्पी की अपेक्षा से ही किया गया है, तथापि स्थविर-कल्पी साधुओं को भी अयोग्य शिष्यों के संग्रह से तो सदा दूर ही रहना चाहिए और योग्य शिष्यों को भी अनुग्रह-बुद्धि से तथा धर्मोन्नति के लिए दीक्षित करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यदि उपकार-बुद्धि को छोड़कर केवल अपने ही स्वार्थ के लिए इन उक्त कार्यों को करेगा तो वह इन्द्रियरूप चोरों के वशीभूत होकर अनेक प्रकार के दोषों को प्राप्त हो जाएगा। .
अब फिर इसी विषय में कहते हैं, यथातओ से जायंति पओयणाई, निमज्जिङ मोहमहण्णवम्मि । सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा, तप्पच्चयं उज्जमए य रागी ॥ १०५ ॥
ततस्तस्य जायन्ते प्रयोजनानि, निमज्जयितुं मोहमहार्णवे । सुखैषिणो दुःखविनोदनार्थं, तत्प्रत्ययमुद्यच्छति च रागी ॥ १०५ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २७९] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं