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उवेइ-प्राप्त करता है।
मूलार्थ-काम-भोगादि विषय न तो राग-द्वेष को दूर कर सकते हैं और न उनकी उत्पत्ति के कारण हैं, किन्तु जो पुरुष उनमें राग अथवा द्वेष करता है, वही राग और द्वेष के कारण विकृति को प्राप्त हो जाता है। ___टीका-प्रस्तुत गाथा में 'समो य जो तेसु स वीयरागो-समश्च यस्तेषु स वीतरागः' इस पद का स्पष्टीकरण किया गया है। तात्पर्य यह है कि काम-भोगादि विषय न तो राग-द्वेष को उपशान्त करते हैं और न ही किसी प्रकार की विकृति के कारण हैं अर्थात् क्रोधादि कषायों को उत्पन्न करते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि राग-द्वेष की उपशमता और आत्मा का निज स्वभाव को त्यागकर क्रोधादिरूप कषायों के द्वारा विकृतिभाव को प्राप्त होना, यह सब काम-भोगादि के अधीन नहीं है किन्तु जो व्यक्ति इनमें राग अथवा द्वेष करता है वही व्यक्ति राग-द्वेष के कारण मोह के वशीभूत होकर विकृतिभाव को प्राप्त होता है। जिस आत्मा में राग-द्वेष की परिणति नहीं होती उसके लिए ये काम-भोगादि विषय सर्वथा अकिंचन हैं। इसलिए आत्मा का जो विकारयुक्त होना है, उसका कारण काम-भोगादि विषय नहीं किन्तु राग-द्वेष से उत्पन्न होने वाला मोह है। यदि संक्षेप से कहें तो राग-द्वेष के क्षय से वीतरागता की उपलब्धि होती है।
- इस प्रकार राग-द्वेष के वशीभूत हुई आत्मा में जो विकार उत्पन्न होते हैं, अब उनका दिग्दर्शन कराते हैं, यथा
कोहं च माणं च तहेव मायं, लोहं दुगुच्छं अरइं रइं च । हासं भयं सोगपुमित्थिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य भावे ॥ १०२ ॥
क्रोधं च मानं च तथैव मायां, लोभं जुगुप्सामरतिं रतिं च ।
हास्यं भयं शोकं पुंस्त्रीवेदं, नपुंसकवेदं विविधांश्च भावान् ॥ १०२ ॥ पदार्थान्वयः-कोहं-क्रोध, च-और, माणं-मान, च-पुनः, तहेव-उसी प्रकार, मायं-माया, लोह-लोभ, दुगुच्छं-जुगुप्सा, अरई-अरति, च-और, रई-रति, हासं-हास्य, भयं-भय, सोगं-शोक, पुं-पुरुषवेद, इत्थिवेयं-स्त्रीवेद, नपुंसवेयं-नपुंसकवेद, य-और, विविहे-नाना प्रकार के, भावे-हर्ष-विषादादि भाव(आगामी गाथा के साथ संयुक्त अर्थ)
आवज्जई एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अन्ने य एयप्पभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से ॥ १०३ ॥
आपद्यते एवमनेकरूपान्, एवंविधान् कामगुणेषु . सक्तः । ... अन्यांश्चैतत्प्रभवान् विशेषान्, कारुण्यदीनो ह्रीमान् द्वेष्यः ॥ १०३ ॥ पदार्थान्वयः-आवजई-पाता है, एवं-इस प्रकार से, अणेगरूवे-अनेक रूपों को,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २७७] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं