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राग से आकृष्ट होकर अपने स्वार्थ के लिए उनको पीड़ा पहुंचाता है।
टीका-भावाशा के वशीभूत होने वाला जीव अनेक प्रकार के संकल्पों द्वारा हिंसा के भावों को उत्पन्न करता है। जैसे-इस औषधि से उसको वश में कर लूं, इस औषधि से स्वर्णसिद्धि प्राप्त कर लूं और इस उपाय के द्वारा पुत्र उत्पन्न कर लूं इत्यादि, तथा इस प्रकार से उन जीवों को मार सकता हूं और इस प्रकार से कष्ट पहुंचा सकता हूं इत्यादि। तात्पर्य यह है कि किसी जीव के लिए जघन्य संकल्प करना अथवा उसकी मृत्यु अथवा कष्ट के लिए विचार करना भाव-हिंसा है। यह हिंसा अनेक प्रकार के अनर्थों की जननी है। इसका मूल स्रोत राग है, जिसके विषय में ऊपर कहा गया है। .
अब फिर इसी विषय में कहते हैंभावाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसंनिओगे । वए विओगे य कह सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे ॥ ९३ ॥
भावानुपातेन परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे ।..
व्यये वियोगे च कथं सुखं तस्य, सम्भोगकाले चाऽतृप्तिलाभे ॥ ९३ ॥ पदार्थान्वयः-भावाणुवाएण-भावविषयक अनुराग से, परिग्गहेण-परिग्रह से, उप्पायणे-उत्पादन में, रक्खणसंनिओगे-रक्षण और संनियोग में, वए-व्यय होने पर, विओगे-वियोग होने पर, से-उस जीव को, कहं सुहं-कैसे सुख हो सकता है, य-तथा, संभोगकाले-संभोगकाल में, अतित्तलाभे-तृप्ति का लाभ न होने पर।
मूलार्थ-भाव के अनुराग से और परिग्रह से भाव के उत्पादन में, रक्षण और सन्नियोग में, विनाश हो जाने पर तथा वियोग हो जाने पर, उस रागी पुरुष को कहां से सुख की प्राप्ति हो सकती है? तथा संभोगकाल में भी तृप्ति का लाभ न होने पर उसे सुख नहीं मिल सकता।
टीका-भावविषयक उत्कट राग रखने वाला जीव किसी समय भी सुख की उपलब्धि नहीं कर सकता, यही इस गाथा का तात्पर्य है। विषयों के अधिक चिन्तन से, भोग्य पदार्थों का अधिक संग्रह करने की लालसा से तथा यह विषयादि पदार्थ किस प्रकार से मिल सकेंगे, इस प्रकार के चिन्तन से, आरोग्य तथा वृद्धि आदि भावों की रक्षा करने से, दूसरे को सद्बुद्धि अथवा कुबुद्धि के देने से, एवं निद्रा आदि के द्वारा स्मृति के हीन हो जाने पर, दूसरे को उत्तर देने में स्फूर्ति के न होने पर, अर्थात् इस प्रकार की उलझनों में पड़ने से भावानुरागी जीव कभी सुख को प्राप्त नहीं कर सकता।
अब फिर कहते हैंभावे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेिं । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ९४ ॥
भावेऽतृप्तश्च परिग्रहे, सक्त उपसक्तो नोपैति तुष्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविल आदत्तेऽदत्तम् ॥ ९४ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २७२ ] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अल्झयणं