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वशीभूत हुआ, अदत्तं - नहीं दिए हुए को, आययई-ग्रहण करता है।
मूलार्थ - गंध में अतृप्त और परिग्रह में सामान्य- विशेषरूप से आसक्त रहने वाला जीव सन्तोष को प्राप्त नहीं होता और बढ़े हुए असंतोष से दुःखी होता हुआ लोभ के वशीभूत होकर पर के पदार्थों को चुराने लग जाता है।
टीका- गन्धानुरागी जीव सन्तोष को प्राप्त नहीं होता। इसी से वह दूसरों के सुगन्धमय पदार्थों को ग्रहण करने की लालसा से आकृष्ट हुआ चौर्य-कर्म में प्रवृत्त हो जाता है।
अब फिर कहते हैं
तृष्णाभिभूतस्यादत्तहारिणः,
तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहें य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ५६ ॥ गन्धेऽतृप्तस्य परिग्रहे च । माया-मृषा वर्धते लोभदोषात्, तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ॥ ५६ ॥ पदार्थान्वयः-तण्हाभिभूयस्स - तृष्णा के वशीभूत, अदत्तहारिणो- अदत्त का लेने वाला,' गंधे- - गन्ध में, अतित्तस्स-अतृप्त, य - और, परिग्गहे - परिग्रह में आसक्त, लोभदोसा - लोभ के दोष से, मायामुसं - माया और मृषावाद को, वड्ढइ-बढ़ाता है, तत्थावि - फिर भी, से - वह, दुक्खा - दुःख से, न विमुच्चई - मुक्त नहीं होता- नहीं छूटता है। -
मूलार्थ - तृष्णा के वशीभूत हुआ; चोरी करने वाला, गन्ध में अतृप्त और परिग्रह में मूच्छित जीव लोभ के दोष से माया और मृषावाद की वृद्धि करता है, परन्तु फिर भी वह दु:खों से मुक्त नहीं हो सकता।
टीका- इस पर जो कुछ वक्तव्य था वह पहली गाथा में कह दिया गया है। अब फिर कहते हैं
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले यदुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ५७ ॥
मृषा - (वादस्य ) पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः । एवमदत्तानि समाददानः, गन्धेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ॥ ५७ ॥ पदार्थान्वयः - मोसस्स - मृषावाद के, पच्छा-पश्चात्, य - - और, पुरत्थओ-पहले, य-तथा, पओगकाले-प्रयोगकाल में, दुरंते- दुष्ट अन्तःकरण वाला, दुही-दुःखी होता है, एवं इसी प्रकार, अदत्ताणि - अदत्त का, समाययंतो ग्रहण करता हुआ, गंधे- गन्ध के विषय में, अतित्तो - अतृप्त, दुहिओ - दुखित होता है, अणिस्सो - असहाय ।
मूलार्थ - मृषा-भाषण के पश्चात् या पहले तथा बोलने के समय दुरन्त- दुष्ट- अन्तःकरण वाला, अथवा नासिका को वश में न करने वाला जीव अवश्य दुःखी होता है तथा चौर्यकर्म
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२५३] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं