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शस्त्रों से, ते-उन जीवों को, परितावे - परिताप देता है, बाले - अज्ञानी जीव, अत्तट्ठगुरू किलिट्टे-अपने स्वार्थ में अत्यन्त आसक्त और राग से प्रेरित हुआ, पीलेइ - प्राणियों को पीड़ा देता है ।
मूलार्थ - गन्ध की आशा से बंधा हुआ बाल अर्थात् विवेकहीन जीव अनेक प्रकार के चराचर जीवों को मारता है और नाना प्रकार के शस्त्रों से उनको परिताप देता है तथा राग से प्रेरित हुआ अपने स्वार्थ के लिए उनको पीड़ा पहुंचाता है।
टीका - इस गाथा की व्याख्या द्वारा जो कुछ वक्तव्य था, वह पूर्व गाथाओं की व्याख्या में कह दिया गया है, इसलिए यहां पर कुछ अधिक लिखना अनावश्यक है।
अब इसी विषय में फिर कहते हैं
उपाय
गंधाणुवाएण परिग्गहेण, रक्खणसंनिओगे । वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे ॥ ५४ ॥ गन्धानुपातेन परिग्रहेण उत्पादने रक्षणसन्नियोगे । संभोगकाले चातृप्तिलाभः ॥ ५४ ॥
व्यये वियोगे च कथं सुखं तस्य, पदार्थान्वयः - गंधाणुवाएण - ग - गन्ध के अनुराग से, परिग्गहेण - परिग्रह से, उप्पायणे - उत्पादन में, रक्खणसंनिओगे- रक्षण और संनियोग में, वए-विनाश में, विओगे - वियोग में, सेउसको, कहं - कैसे, सुहं - सुख हो सकता है, संभोगकाले - संभोगकाल में, य-और, अतित्तलाभेअतृप्तिलाभ में।
मूलार्थ - गन्धविषयक अनुराग और परिग्रह से गन्ध के उत्पादन में, रक्षा करने में और सम्यक् व्यवहार करने में, वियोग में तथा संभोगकाल में, सन्तोष का लाभ न होने से उस रागी जीव को कैसे सुख हो सकता है ?
टीका - इस गाथा की व्याख्या भी पूर्व गाथाओं के समान समझ लेनी चाहिए। फिर कहते हैं
गंधे अतित्ते व परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ५५ ॥ गन्धे तृप्तश्च परिग्रहे सक्त उपासक्तो नोपैति तुष्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविल आदत्ते दत्तम् ॥ ५५ ॥
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पदार्थान्वयः - गंधे - गन्ध के विषय में, अतित्ते - अतृप्त, य- - और, परिग्गहम्मि- परिग्रह में, सत्तोवसत्तो-सामान्य और विशेष रूप से आसक्त, तुट्ठि-सन्तोष को, न उवेइ - प्राप्त नहीं होता, अतुट्ठिदोसेण - अतुष्टिदोष से, दुही-दुःखी हुआ, परस्स पर के पदार्थ को, लोभाविले - लोभ के
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२५२] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं