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अतित्तो - अतृप्त, दुहिओ - दुःखित, अणिस्सो - सहायक से रहित ।
मूलार्थ - मिथ्याभाषण के पीछे और पहले तथा बोलते समय स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत होने वाला पुरुष दुःखी होता है। इसी प्रकार अदत्त का ग्रहण करने वाला जीव भी स्पर्श के विषय में अतृप्त होता हुआ दुःखी और सहाय से रहित हो जाता है।
टीका-मिथ्याभाषण और चोरी करने वाला जीव न तो कभी सुख को प्राप्त होता है और न ही उसको किसी के आश्रय की प्राप्ति होती है। विपरीत इसके वह दुःखी और असहाय होता है। अब प्रस्तुत विषय का निगमन करते हुए फिर कहते हैं
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फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ८४ ॥ स्पर्शानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं भूयात्कदापि किञ्चित् ? तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं, निर्वर्तयति यस्य कृते दुःखम् ॥ ८४ ॥
पदार्थान्वयः-एवं-इस प्रकार, फासाणुरत्तस्स - स्पर्श में अनुरक्त, नरस्स - पुरुष को, कयाइ - किसी काल में, किंचि-किंचिन्मात्र भी, कत्तो - कहां से, सुहं सुख, होज्ज - होवे, तत्थ - वहां स्पर्श में, उवभोगे वि-उपभोग के होने पर भी, किलेसदुक्खं - क्लेश और दुःख को ही, निव्वत्तई - उत्पन्न करता है, जस्स कए - जिसके लिए आत्मा को, दुक्खं दुःख होता है, ण- वाक्यालंकार में है।
मूलार्थ - स्पर्श में अनुरक्त रहने वाले पुरुष को किसी काल में किंचिन्मात्र भी सुख की प्राप्ति कहां से हो सकती है? क्योंकि वह स्पर्श के उपभोग में भी क्लेश और दुःख का ही सम्पादन करता है और परिणामस्वरूप उसकी आत्मा निरन्तर दुःख का अनुभव करती है। तात्पर्य यह है कि स्पर्श के विषय में मूच्छित होने वाला जीव किसी समय भी सुख प्राप्त नहीं
कर पाता।
टीका - भावार्थ स्पष्ट है।
अब द्वेष के विषय में कहते हैं, यथा
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एमेव फासम्म गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ८५ ॥
एवमेव स्पर्शे गतः प्रद्वेषम्, उपैति दुःखौघपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके ॥ ८५ ॥
पदार्थान्वयः - एमेव- इसी प्रकार, फासम्मि - स्पर्श में, पओसं- उत्कट द्वेष को गओ - प्राप्तं हुआ, दुक्खोहपरंपराओ-दु:खसमूह की परम्परा को, उवेइ - पाता है, पदुट्ठचित्तो - दूषित - चित्त, कम्मं-कर्म को, चिणाइ - एकत्रित करता है, जं- जो कर्म, से उसके लिए वह, पुणो-फिर,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२६७] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं