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बताया गया है, परन्तु इन दोनों प्रकार के रसों में जो समान भाव रखता है, वही वीतराग अर्थात् राग-द्वेष से रहित है।
टीका - प्रस्तुत गाथा का भावार्थ पूर्ववत् समझ लेना चाहिए ।
अब इन दोनों का अर्थात् इन्द्रिय और विषय का पारस्परिक सम्बन्ध बताते हुए फिर कहते हैं
रसस्स जिब्धं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति । रागस्स हे अमणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ ६२ ॥
रसस्य जिह्वां ग्राहिकां वदन्ति, जिह्वाया रसं ग्राह्यं वदन्ति । रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः, द्वेषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ॥ ६२ ॥
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पदार्थान्वयः - जिब्भं - जिह्वा को, रसस्स - रस का, गहणं-ग्राहक, वयंति कहते हैं और, रसं - रस को, जिब्भाए-जिह्वा का, गहणं - ग्राह्य, वयंति - कहते हैं, समणुन्नं- मनोज्ञ रस को, रागस्स - राग का, हेउं हेतु, आहु-कहा है, अमणुन्नं - अमनोज्ञ रस को, दोसस्स - द्वेष का, हेउं हेतु, आहु - कहा है।
मूलार्थ - रस को जिह्वा ग्रहण करती है और रस जिह्वा का ग्राह्य है, वह रस यदि मनोज्ञ हो तो राग का हेतु होता है और अमनोज्ञ होने पर द्वेष का कारण बन जाता है, ऐसा तीर्थंकरादि महापुरुष कहते हैं ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में भी रस और रसना - इन्द्रिय के ग्राह्य ग्राहकभाव का दिग्दर्शन कराते हुए रस की मनोज्ञता एवं अमनोज्ञता को राग-द्वेष का हेतु बताया गया है। शेष भाव पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
अब रस-विषयक बढ़े हुए राग का दोष बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं किरसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिभोगगिद्धे ॥ ६३ ॥
रसेषु यो गृद्धिमृपैति तीव्राम्, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागारो बडिशविभिन्नकायः, मत्स्यो यथाऽऽमिषभोगगृद्धः ॥ ६३ ॥ पदार्थान्वयः-जो-जो, रसेसु - रसों में, तिव्वं - अति उत्कट, गिद्धिं - मूर्छा को, उवेइ - प्राप्त होता है, से - वह, अकालियं - अकाल में ही, विणासं विनाश को, पावइ - पाता है, रागाउरे - रागातुर, बडिसविभिन्नकाए-बड़िश अर्थात् लोहमय कंटक से वेधा गया है शरीर जिसका ऐसा, मच्छे-मत्स्य, जहा -- जैसे, आमिसभोगगिद्धे मांस के भोग में मूच्छित होता है।
मूलार्थ - जो मनुष्य रस का अत्यन्त रागी है, अर्थात् रस में अत्यन्त आसक्त रहता है वह अकाल में ही ऐसे विनाश को प्राप्त हो जाता है, जैसे राग से आतुर हुआ मत्स्य मांस के लोभ
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२५६ ] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं