________________
से ग्रस्त होने पर लोहमय कंटक से विभिन्नकाय होकर विनाश को प्राप्त होता है।
टीका- जो पुरुष रसों में अत्यन्त मूर्च्छित अर्थात् आसक्त है वह मांस के टुकड़े में आसक्त होने वाले मच्छ की भांति शीघ्र ही विनाश को प्राप्त हो जाता है। मत्स्य के विनाश का कारण उसकी बढ़ी हुई रसासक्ति ही तो है। जैसे मत्स्य पकड़ने वाले लोहे के कांटे में मांस का टुकड़ा लगाकर उसको जल में फैंक देते हैं, उस मांस के टुकड़े को खाने के लिए मत्स्य आते हैं, जब वह उनके मुख में जाता है तब मांस के अन्दर जो लोहे का कांटा है वह उनके गले में फंस जाता है, उससे वे बाहर खिंचे चले आते हैं और बाहर आते ही मृत्यु को प्राप्त करते हैं।
तात्पर्य यह है कि यदि मत्स्यों के अन्दर मांस की लोलुपता न होती तो वे विनाश को प्राप्त न होते। इसी प्रकार जो जीव रसों में अत्यन्त मूच्छित हो जाता है वह अनेक प्रकार के कष्टों का अनुभव करता हुआ अकाल में ही विनष्ट हो जाता है।
इस प्रकार राग - जन्य अनर्थ का वर्णन करके अब द्वेष के विषय में कहते हैं, यथाजे यावि दोस समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रसं अवरज्झई से ॥ ६४ ॥ यश्चापि द्वेषं समुपैति तीव्रं तस्मिन्क्षणे स तूपैति दुःखम् । दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः, न किञ्चिद्रसोऽपराध्यति तस्य ॥ ६४ ॥
पदार्थान्वयः - जे यावि- जो कोई, तिव्वं - तीव्र, दोसं-द्वेष को समुवेइ - प्राप्त करता है, से - वह, तंसि क्खणे - उसी क्षण में, उ-वितर्क अर्थ में है, दुक्खं दुःख को, उवेइ-पाता है, सएण-अपने, दुर्द्दतदोसेण- दुर्दान्त दोष से, जंतू - जीव - दुःख को प्राप्त होता है, से उसका, रसं - रस, किंचि - किंचिन्मात्र भी, न अवरज्झई - अपराध नहीं करता ।
मूलार्थ - जो जीव रसविषयक अत्यन्त द्वेष को प्राप्त होता है वह स्वकृत दुर्दान्त अपराध से उसी क्षण में दुःख को प्राप्त हो जाता है, इसमें रस का कोई अपराध नहीं है।
टीका- उक्त गाथा का तात्पर्य यह है कि जीव के दुःखी होने का कारण उसके अन्दर रहा हुआ उत्कट द्वेष ही है, उसी के कारण वह दुःख को प्राप्त होता है । अप्रिय रस का इसमें कोई दोष नहीं, अर्थात् वह दुःख का हेतु नहीं है।
रसों में आसक्ति और अनासक्ति रखने वाले जीव को जिस दोष और गुण की प्राप्ति होती है, अब शास्त्रकार उसके विषय में कहते हैं, यथा
एगंतरत्ते रुइरे रुइरे रसम्मि, अतालिसे से कुणई ओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ६५ ॥
एकान्तरक्तो रुचिरे रसे, अतादृशे सः कुरुते प्रद्वेषम् । दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागी ॥ ६५ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२५७] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं