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टीका - प्रस्तुत गाथा में रूपादि विषयक अत्यन्त आसक्ति होने से जो परिणाम निकलता है उसका दिग्दर्शन कराया गया है। शास्त्रकार कहते हैं कि जो व्यक्ति रूपादि के विषय में अत्यन्त गृद्धि रखता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् राग की तीव्रता के कारण उसका बहुत शीघ्र विनाश हो जाता है। यद्यपि आयु-कर्म अपने नियत समय पर ही पूर्ण होता है, तथापि सोपक्रम और व्यवहारनय की दृष्टि से यह कथन किया गया है। तात्पर्य यह है कि उपक्रम की अपेक्षा से और व्यवहार की दृष्टि से अकाल-मृत्यु का होना संभव माना गया है। उक्त विषय पर दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि जैसे रूपविषयक उत्कट रांग रखने वाला पतंगा अग्नि- शिखा में जल मरता है अर्थात् रूप में अत्यन्त मूर्छित होने के कारण दीप्त शिखा को पकड़ने जाता हुआ स्वयं उसमें भस्म हो जाता है, इसी प्रकार रूपादि में मूर्छित होने वाला जीव भी अकाल में ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है। जो व्यक्ति रूपादि विषयों में सामान्य अर्थात् मंद राग भी रखने वाले हैं वे नाना प्रकार के क्लेशों और कष्टों का सामना करते हैं। इसलिए रूपादिविषयक राग का सर्वथा त्याग कर देना ही मुमुक्षु जनों के लिए अत्यन्त लाभ का है।
अब द्वेष के विषय में कहते हैं
जे यावि दोसं समुवेइ निच्चं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्ख । दुद्दतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रूवं अवरझई से ॥ २५ ॥
यश्चापि द्वेषं समुपैति नित्यम्, तस्मिन्क्षणे स तु समुपैति दुःखम् । दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः, न किंचिद्रूपमपराध्यति तस्य ।। २५ ।।
पदार्थान्वयः - जे–जो, य-पुनः, अवि-संभावना में, दोसं - द्वेष को समुवेइ - उत्पन्न करता है, निच्चं सदैव, तंसि क्खणे - उसी क्षण में, दुक्ख-दु:ख को, से- वह, उवेइ - प्राप्त करता है, उ में है, दुद्दंतदोसेण - दुर्दान्त दोष से, सएण - स्वकृत से, जंतू - जीव, से उसको, किंचि - किंचिन्मात्र भी, रूवं-कुरूप-कुत्सितरूप, न अवरज्झई - अपराध नहीं करता – दुःख नहीं देता।
मूलार्थ - जो जीव अमनोज्ञ रूप के विषय में सदैव द्वेष करता है वह उसी क्षण दुःख को प्राप्त हो जाता है और वह जीव अपने ही दोष से दुःखी होता है। उसमें रूप का कोई भी दोष नहीं है।
टीका- यदि कोई जीव अपने तीव्र भावों से अमनोज्ञ रूप को देख कर द्वेष को प्राप्त होता है तो वह उसी समय दुःख को भी उत्पन्न कर लेता है । तात्पर्य यह है कि " हा ! मैंने इस अनिष्ट रूप को क्यों देखा!'' इस प्रकार के भावों से उसका मन व्याकुल हो उठता है और मन के व्याकुल होने से वाणी और शरीर भी दुःख से पीड़ित होने लगते हैं । सारांश यह है कि जो जीव अपनी चक्षुइन्द्रिय का दमन नहीं करता वह अपने दोष से युक्त हुआ अवश्य दुःख पाता है । परन्तु इतना स्मरण रहे कि अमनो रूप ने उस-आत्मा को-दुःखी नहीं किया, किन्तु वह अपने ही राग-द्वेषयुक्त भावों से दुःखित होती है । कारण यह है कि रूप का आंखों में प्रविष्ट होने का और चक्षु का उसे ग्रहण करने का स्वभाव ही
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२३४] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं