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पदार्थान्वयः-सद्देसु-शब्दों में, जो-जो, तिव्वं-तीव्र, गिद्धिं-गृद्धि-मूर्छा-को, उवेइ-प्राप्त होता है, से-वह, अकालियं-अकाल में ही, विणासं-विनाश को, पावइ-प्राप्त होता है, रागाउरे-राग में आसक्त हुआ, हरिणमिगे-हरिण-मृग, व-की तरह, मुद्धे-मुग्ध, सद्दे-शब्द से, अतित्ते-अतृप्त हुआ, मच्छं-मृत्यु को, समुवेइ-प्राप्त होता है।
मूलार्थ-शब्दों के विषय में अत्यन्त मूर्छित होने वाला जीव अकाल में ही विनाश अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, जैसे राग में आसक्त हुआ हरिण-मृग मुग्ध होकर शब्द के श्रवण में सन्तोष को न प्राप्त होता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में शब्दविषयक बढ़े हुए राग से उत्पन्न होने वाली हानि का दिग्दर्शन कराया गया है। जैसे राग में मस्त हुआ हरिण-मृग (कस्तूरी मृग) अपने प्राणों को दे देता है, अर्थात् नाद-माधुर्य के लोभ में वह अपने प्राणों को खो बैठता है', ठीक उसी प्रकार से शब्दों के श्रवण में अत्यन्त मूच्छित आसक्त होने वाला जीव अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यद्यपि मृग शब्द हरिण के अर्थ में भी प्रसिद्ध है, तथापि हरिण शब्द का पृथक् प्रयोग होने से वह यहां पर कस्तूरी मृग का वाचक बन जाता है।
अब द्वेष के विषय में कहते हैं. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ।
दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि सह अवरज्झई से ॥ ३८ ॥ यश्चापि द्वेषं समुपैति तीवं, तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम् ।
दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः, न किञ्चिच्छब्दोऽपराध्यति तस्य ॥ ३८ ॥ पदार्थान्वयः-जे-जो कोई-अमनोज्ञ शब्द में, तिव्वं-तीव्र, दोसं-द्वेष, समुवेइ-करता है, से-वह, तंसि क्खणे-उसी क्षण में, दुक्खं-दु:ख को, उवेइ-प्राप्त हो जाता है, सएण-स्वकृत, दुइंतेण-दुर्दान्त, दोसेण-दोष से, जंतू-जीव, परंच, से-उसका, सह-शब्द, किंचि-किंचिन्मात्र भी, न अवरज्झई-अपराध नहीं करता।
मूलार्थ-जो कोई जीव अप्रिय शब्द में तीव्र द्वेष करता है, वह स्वकृत दुर्दान्त दोष से उसी क्षण में दुःख को प्राप्त हो जाता है, परन्तु वह अप्रिय शब्द उस जीव का कुछ भी अपराध नहीं करता, अर्थात् वह शब्द उसको दुःख देने वाला नहीं होता। ____टीका-प्रस्तुत गाथा में शब्द-विषयक द्वेष करने का फल बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि शब्दविषयक द्वेष करने से अर्थात् अप्रिय शब्द को सुनकर मन में द्वेष उत्पन्न करने से यह जीव उसी क्षण में दुःख का अनुभव करने लग जाता है, परन्तु इस दु:ख का कारण उसका अपना दोष है न कि १. किसी भाषा के कवि ने इस विषय में क्या ही अच्छा कहा है -
नाद के लोभ दहे मृग प्राणन, बीन सुने अहि आप बंधावे।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २४३] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं