________________
अदत्ताणि-अदत्त को, समाययंतो-ग्रहण करने वाला, सद्दे-शब्द के विषय में, अतित्तो-अतृप्त, दुहिओ-दुःखित होता. है तथा, अणिस्सो-असहाय होता है।
मूलार्थ-मृषावाद के पहले और पीछे अथवा मृषाभाषण करते समय यह दुरन्त अर्थात् दुष्ट कर्म करने वाली आत्मा अवश्य दुःखी होती है। उसी प्रकार चोरी में प्रवृत्त और शब्द में अतृप्त हुई आत्मा भी दुःख को प्राप्त होती है तथा उसका कोई सहायक नहीं होता।
टीका-इस गाथा की व्याख्या भी गत ३१वीं गाथा के समान ही समझनी चाहिए। अब प्रस्तुत विषय का निगमन करते हुए कहते हैं किसद्दाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ ४५ ॥
शब्दानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं भवेत् कदापि किञ्चित् ? ... तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं, निवर्तयति यस्य कृते दुःखम् ॥ ४५ ॥
पदार्थान्वयः-सद्दाणुरत्तस्स-शब्दानुरक्त, नरस्स-पुरुष को, एवं-इस प्रकार, कत्तो-कहां से, सुह-सुख, होज्ज-होवे, कयाइ-कदाचित्, किंचि-यत्किचित् भी, तत्थ-उस शब्द के, उवभोगे वि-उपभोग में भी, जस्स कए-जिसके लिए, किलेसदुक्खं-क्लेशों और दु:खों को, निव्वत्तई-संचित करता है। ___ मूलार्थ-शब्द के अनुरागी पुरुष को उक्त प्रकार से कैसे सुख हो सकता है, अपितु उसे किसी काल में भी थोड़ा-सा भी सुख प्राप्त नहीं होता तथा शब्द के उपभोगकाल में भी वह क्लेशों और दुःखों को ही संचित करता है।
टीका-शब्द के विषय में विशिष्ट अनुराग रखने वाला पुरुष किसी प्रकार से भी सुखी नहीं हो सकता, किन्तु असन्तोष की वृद्धि के कारण उसे निरन्तर दुःख का ही अनुभव करना पड़ता है, यही इस गाथा का तात्पर्य है।
अब शास्त्रकार द्वेष के विषय में वर्णन करते हैं, यथा. एमेव सदम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ४६ ॥
एवमेव शब्दे गतः प्रद्वेषम्, उपैति दुःखौघपरम्पराः ।
प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म, यत्तस्य, पुनर्भवति दुःखं विपाके ॥ ४६ ॥ पदार्थान्वयः-एमेव-इसी प्रकार, सद्दम्मि-शब्द के विषय में, पओसं-प्रद्वेष को, गओ-प्राप्त हुआ, दुक्खोह-दु:खसमूह की, परंपराओ-परम्परा को, उवेइ-प्राप्त करता है, पदुट्ठचित्तो-दुष्ट है चित्त जिसका, कम्म-कर्म का, चिणाइ-उपार्जन करता है, जं-जो, से-उस कर्म करने वाले को, पुणो-फिर, विवागे-विपाककाल में, दुहं-दु:ख, होइ-होता है, उ-प्राग्वत्।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२४७] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं