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है, इसलिए दोनों ही दुःख के मूलोत्पादक नहीं हैं। दुःख का उत्पादक तो आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष के भावविशेष ही हैं। इसी अभिप्राय से यह कहा गया है कि 'रूप का इसमें कोई अपराध नहीं है।' किसी-किसी प्रति में 'निच्चं' के स्थान पर 'तिव्वं'-तीव्र-ऐसा पाठ उपलब्ध होता है। ___अब फिर इसी विषय में अर्थात् राग-द्वेषमूलक अनर्थ और उसके त्याग के विषय में कहते हैं, यथा
एगंतरत्ते रुइरंसि रूवे, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ २६ ॥
एकान्तरक्तो रुचिरे रूपे, अतादृशे स करोति प्रद्वेषम् ।
दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागी ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः-एगंतरत्ते-एकान्त रक्त, रुइरंसि-रुचिर अर्थात् सुन्दर, रूवे-रूप में, अतालिसे-असुन्दर रूप में, से-वह, पओसं-प्रद्वेष, कुणई-करता है, दुक्खस्स-दुःख के, संपीलं-समूह को, बाले-बाल जीव, उवेई-प्राप्त करता है, अपरंच, विरागो-विरागी, मुणी-मुनि, तेण-उससे-राग के द्वारा उत्पन्न हुए दु:ख से, न लिप्पइ-लिप्त नहीं होता।
मूलार्थ-जो एकान्त मनोहर रूप के विषय में अनुरक्त होता है तथा असुन्दर रूप में प्रद्वेष करता है, वह बाल अज्ञानी जीव दुःख-समूह को प्राप्त करता है, परन्तु वीतराग मुनि उस दुःख से लिप्त नहीं होता, अर्थात् वीतराग मुनि को वह दुःख प्राप्त नहीं होता।
टीका-राग-द्वेष को दुःख का कारण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि एकान्त सुन्दर रूप में अनुरक्त होने वाला और कुत्सित रूप से द्वेष करने वाला पुरुष दु:ख के समुदाय को एकत्रित कर लेता है, परन्तु जो वीतराग मुनि है उसको किसी प्रकार के दुःख का सम्पर्क नहीं होता। तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष के कारण से ही दु:ख की उत्पत्ति होती है और राग-द्वेष के अन्त:करण से मिट जाने पर तज्जन्य दुःख की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए जिस आत्मा में राग-द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं होते उसको दुःख का सम्पर्क नहीं होता, अर्थात् वह आत्मा इष्ट-वियोग और अनिष्ट संयोग के होने पर भी दुःखी नहीं होती किन्तु पद्मपत्र की तरह सदा अलिप्त रहती है।
राग ही एक मात्र दु:खों का मूल स्रोत है, उसी से हिंसादि अनेक प्रकार के आस्रवों की उत्पत्ति होती है।
अब शास्त्रकार इसी विषय का स्पष्टरूप से वर्णन करते हैं, यथारूवाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ णेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिढे ॥ २७ ॥
रूपानुगाशानुगतश्च जीवान्, चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान् । चित्रैस्तान्परितापयति बालः, पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः ॥ २७ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २३५] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं