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नाणदंसणं-ज्ञान और दर्शन को, समुप्पाडेइ-सम्पादन करता है, जाव-जब तक, सजोगी-सयोगी-योगों के साथ, भवइ-होता है, ताव-तब तक, इरियावहियं-ईर्यापथिक, कम्म-कर्म क्रिया को, निबंधइ-बांधता है, सुहफरिसं-सुखरूप स्पर्श, दुसमयठिइयं-दो समय की स्थिति वाला, तं जहा-जैसे कि, पढमसमए बद्धं-प्रथम समय में बांधा, बिइयसमए-दूसरे समय में, वेइयं-वेदन किया, तइयसमए-तीसरे समय में, निज्जिण्णं-निर्जीर्ण-क्षय हो जाता है, तं-वह, बद्धं-बांधा हुआ, पुढें-स्पर्शा हुआ, उदीरियं-उदय को प्राप्त हुआ, वेइयं-वेदा हुआ, निज्जिण्णं-निर्जर किया हुआ, य-फिर, सेयाले-भविष्यत् काल में, च-चतुर्थ समय में, अकम्म-कर्म से रहित, भवइ-होता है, अवि-परस्पर अपेक्षा में, संभावना में आया हुआ है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! राग-द्वेष और मिथ्या-दर्शन की विजय से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है?
उत्तर-हे शिष्य ! राग-द्वेष और मिथ्या-दर्शन की विजय से यह जीव ज्ञान-दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत हो जाता है। तदनन्तर वह आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थि को खोलने के लिए उद्योग करता है। यथा-प्रथम, वह अनुक्रम से २८ प्रकार के मोहनीय कर्म का क्षय करता है। फिर पांच प्रकार के ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय और पांच प्रकार के अन्तराय, इन तीनों कर्मांशों-कर्मप्रकृतियों का एक ही समय में क्षय कर देता है। तदनन्तर यह जीवात्मा सर्वप्रधान, अनन्त, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, आवरणरहित, अंधकारशून्य, विशुद्ध और लोकालोक के प्रकाशक, ऐसे सर्वश्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेती है और जब तक वह सयोगी अर्थात् मन, वचन और काया के योग-व्यापार वाली होती है, तब तक ईयापथिक-कर्म अर्थात् क्रिया का बन्ध करती है, परन्तु उसका विपाक सुखकर और स्थिति केवल दो समय मात्र की होती है। यथा-प्रथम समय में बन्ध, द्वितीय समय में उदय और वेदन तथा तीसरे समय में फल देकर विनष्ट हो जाना। इस प्रकार प्रथम समय में बंध और स्पर्श, दूसरे में उदय और वेदन, तथा तीसरे में निर्जरा होकर चौथे समय में यह जीवात्मा सर्वथा कर्मों से रहित हो जाती है।
___टीका-शिष्य अपने गुरुजनों से पूछता है कि भगवन् ! राग-द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय प्राप्त कर लेने से इस जीवात्मा को किस गुण की प्राप्ति होती है? शिष्य के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि भद्र ! राग-द्वेष और मिथ्या-दर्शन पर विजय प्राप्त करने वाला जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में तत्पर होता हुआ अष्टविध कर्मों की ग्रन्थियों को खोलने के लिए अनुक्रम से-मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इन चार कर्मों की प्रकृतियों का क्षय करके सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है और जब तक वह केवली जीव सयोगी अर्थात् मन, वचन और काया के योग वाला-प्रवृत्ति वाला होता है, तब तक वह ऐर्यापथिक क्रिया का बन्ध करता है। क्योंकि उसका काय-योग स्थिर नहीं होता, इसलिए नाम मात्र के लिए ऐर्यापथिक क्रिया का बन्ध होता है। परन्तु इस बन्ध की स्थिति केवल दो समय मात्र की होती है और उसका आत्म-प्रदेशों के
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १६४] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं