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तत्त्व को समझने में सुगमता का होना तो सुनिश्चित ही है। अब उक्त प्रतिज्ञा के अनुसार प्रस्तावित विषय का वर्णन करते हैं, यथा -
एगओ विरइं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं । असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं ॥२॥ एकतो विरतिं कुर्यात्, एकतश्च प्रवर्तनम् ।
असंयमान्निवृत्तिं च, संयमे च प्रवर्तनम् ॥ २ ॥ पदार्थान्वयः-एगओ-एक स्थान से, विरई-विरति, कुज्जा-करे, य-और, एगओ-एक स्थान में, पवत्तणं-प्रवृत्ति करे, असंजमे-असंयम से, नियत्तिं-निवृत्ति करे, च-और, संजमे-संयम में, पवत्तणं-प्रवृत्ति करे।
मूलार्थ-एक स्थान से निवृत्ति और एक स्थान में प्रवृत्ति करे। जैसे-असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करे। ___टीका-प्रस्तुत गाथा में चरणविधि का स्वरूप बताया गया है। यथा-एक ओर से निवृत्त होना और दूसरी ओर प्रवृत्त होना, चरणविधि है। इसी बात को गाथा के उत्तरार्द्ध में व्यक्त कर दिया गया है अर्थात् असंयम से निवृत्ति-हिंसादि आस्रवद्वारों का निरोध और संयम में प्रवृत्ति-अहिंसादि पांच महाव्रतों का अनुष्ठान करना चाहिए। यह चरणविधि का सामान्य लक्षण है।
प्रस्तुत गाथा के द्वितीय पाद में 'एगओ' यह 'तस्-प्रत्ययान्त' का रूप सप्तमी विभक्ति के अर्थ में विहित हुआ है और तृतीय पाद में 'असंजमे' यह पंचमी के अर्थ में,सप्तमी का रूप है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं -
रागे दोसे य दो पावे, पावकम्मपवत्तणे । जे भिक्खू रुंभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ ३ ॥ ...
रागद्वेषौ च द्वौ पापौ, पापकर्मप्रवर्तकौ ।
यो भिक्षुः निरुणद्धि नित्यं, स नं तिष्ठति मण्डले ॥३॥ पदार्थान्वयः-रागे-राग, य-और, दोसे-द्वेष, दो पावे-दो पाप हैं, पावकम्मपवत्तणे-पाप कर्म के प्रवर्तक हैं, जे-जो, भिक्खू-भिक्षु, निच्चं-नित्य-सदैव, रुंभई-इनका विरोध करता है, से-वह, मंडले-संसार में, न अच्छइ-नहीं ठहरता।
मूलार्थ-पाप कर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष हैं, जो भिक्षु इनका सतत निरोध करता है वह संसार में नहीं ठहरता, अर्थात् उसका संसारभ्रमण छूट जाता है।
टीका-राग-द्वेष के वशीभूत हुआ जीव पाप-कर्मों में प्रवृत्ति करता है और पाप कर्मों में प्रवृत्त
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १९८] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं