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है उसको यह जीव प्राप्त कर लेता है। ज्ञान से अज्ञान का विनाश होता है और दर्शन से मोह दूर होता है। एवं राग-द्वेष के त्याग से अर्थात् सर्वथा क्षय कर देने से आत्मा में लगा हुआ कर्ममल धुल जाता है। इस प्रकार परम विशुद्धि को प्राप्त हुआ यह जीव एकान्त सुख जिसमें विद्यमान है ऐसे मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। यहां 'एकान्त सुखरूप' यह मोक्ष का विशेषण इसलिए दिया गया है कि बहुत से दार्शनिक लोग मोक्ष में सुख और दुःख दोनों का ही अभाव मानते हैं तथा मोक्ष को दुःख का अभावरूप स्वीकार करते हैं, परन्तु उनका यह कथन युक्ति और प्रमाण से शून्य होने से अग्राह्य है। इसी के लिए उक्त विशेषण दिया गया अर्थात् मोक्ष दु:ख का अभाव रूप नहीं किन्तु सुखरूप है।
मोक्षमार्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के जो उपाय हैं, अब शास्त्रकार उनके विषय में कहते हैं, यथा
तस्सेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा । सज्झायएगंतनिसेवणा य, सुत्तत्थसंचिंतणया धिई य ॥ ३ ॥
तस्यैष मार्गों गुरुवृद्धसेवा, विवर्जना बालजनस्य दूरात् ।
स्वाध्यायैकान्तनिषेवणा च, सूत्रार्थसञ्चिन्तनया धृतिश्च ॥ ३ ॥ . पदार्थान्वयः-तस्स-उस मोक्ष का, एस-यह, मग्गो-मार्ग है, गुरुविद्धसेवा-गुरु और वृद्धों की सेवा, बालजणस्स-बाल जन का, दूरा-दूर से, विवज्जणा-परित्याग, य-फिर, सज्झाय-स्वाध्याय का, एगंतनिसेवणा-एकान्त सेवन, य-और, सुत्तत्थसंचिंतणया-सूत्रार्थ का सम्यक् चिन्तन करना, य-तथा, धिई-धैर्य-पूर्वक।
मूलार्थ-गुरु और वृद्ध जनों की सेवा करना, बाल जीवों के संग को दूर से छोड़ना और धैर्य-पूर्वक एकान्त में स्वाध्याय तथा सूत्रार्थ का भली प्रकार चिन्तन करना, यह मोक्ष का मार्ग अर्थात् उपाय है।
टीका-जिससे शास्त्र पढ़ा जाता है अथवा जिसने चारित्र का उपदेश किया है, उसको गुरु कहा जाता है तथा जो श्रुत अथवा चारित्र पर्याय में बड़ा हो, उसे वृद्ध कहते हैं। ज्ञान-प्राप्ति के लिए गुरु
और वृद्धों की सेवा करनी चाहिए। इसी को दूसरे शब्दों में गुरुकुलवास कहा गया है। कारण यह है कि गुरुकुल मे वास करने से ज्ञानादि सद्गुणों की प्राप्ति शीघ्र होती है। अज्ञानी और पार्श्वस्थादि को बाल-जन कहते हैं। इनके संसर्ग से सदा दूर रहना चाहिए। कारण यह है कि इनका संसर्ग अनेक प्रकार के दोषों को उत्पन्न करने वाला है। इसी आशय से उक्त गाथा में 'दूरा-दूरात्' शब्द का उल्लेख किया गया है अर्थात् इनका संग कभी नहीं करना चाहिए। केवल सूत्रपाठ से ही अभीष्ट की सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिए एकान्त में बैठकर सूत्र और उसके अर्थ का भली-भांति चिन्तन करना चाहिए। एवं अनुप्रेक्षा करते समय अर्थात् सूत्रार्थ चिन्तन के समय मन में किसी प्रकार का उद्वेग न होना चाहिए। इसी के वास्ते गाथा में 'धिई-धृति' शब्द का उल्लेख किया गया है। ___ उक्त गाथा में ज्ञानप्राप्ति के साधनों का उल्लेख है। अब इस निम्नलिखित गाथा में
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२१८] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं