________________
दुःखं हतं यस्य न भवति मोहः, मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा ।
तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः, लोभो हतो यस्य न किंचन ॥ ८ ॥
पदार्थान्वयः-दुक्खं-दुःख का, हयं-नाश कर दिया, जस्स-जिसको, मोहो-मोह, न होइ-नहीं होता, मोहो-मोह का-उसने; हओ-नाश कर दिया, जस्स-जिसको, तण्हा-तृष्णा, न होइ-नहीं है, तण्हा-तृष्णा का उसने, हया-नाश कर दिया, जस्स-जिसको, न होइ-नहीं है, लोहो-लोभ, उसने, लोहो हओ-लोभ का नाश कर दिया, जस्स-जिसकी, न किंचणाइं-अकिंचनवृत्ति है।
मूलार्थ-जिसको मोह नहीं, उसने दुःख का नाश कर दिया, जिसको तृष्णा नहीं, उसने मोह का अन्त कर दिया, जिसने लोभ का परित्याग कर दिया, उसने तृष्णा का क्षय कर डाला और जो अकिंचन है, उसने लोभ का विनाश कर दिया।
टीका-प्रस्तुत गाथा में दुःखों से छूटने के मार्ग का दिग्दर्शन कराया गया है। यथा-जिस व्यक्ति ने मोह का परित्याग कर दिया, उसने दु:खों का भी अन्त कर दिया। कारण यह है कि मोह से ही दुःखों की उत्पत्ति होती है जैसे कि पूर्व की गाथा में बताया गया है। जब मोह का नाश हुआ, तब तृष्णा भी गई, क्योंकि तृष्णा की उत्पत्ति का कारण मोह है और जब तृष्णा का क्षय हुआ तो लोभ भी साथ ही जाता रहा, क्योंकि तृष्णा ही लोभ की जननी है। एवं जब लोभ न रहा तब अकिंचनता आ गई। सारांश यह है कि एक अज्ञानता के नष्ट होने से सारे दु:ख नष्ट हो जाते हैं। अंत में जो लोभ शब्द का ग्रहण किया है, उसका तात्पर्य राग की प्रधानता दिखाना मात्र है। कारण यह है कि माया और लोभ ये दोनों ही राग के अन्तर्गत हैं।
अब मोहादि के उन्मूलन का उपाय बताने की प्रतिज्ञा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि- . .
रागं च दोसं च तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समूलजालं । जे-जे उवाया पडिवज्जियव्वा, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुव्विं ॥ ९ ॥
रागं च द्वेषं च तथैव मोहम्, उद्धर्तुकामेन समूलजालम् ।
ये-ये उपायाः प्रतिपत्तव्याः, तान् कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्व्या ॥ ९ ॥ पदार्थान्वयः-राग-राग, च-और, दोसं-द्वेष, च-तथा, तहेव-उसी प्रकार, मोह-मोह को, समूलजालं-मूलसहित, उद्धत्तुकामेण-उखाड़ने की इच्छा वाले को, जे-जे-जो-जो, उवाया-उपाय, पडिवज्जियव्वा-ग्रहण करने चाहिएं, ते-उन उपायों को, अहाणुपुट्विं-क्रमपूर्वक मैं, कित्तइस्सामि-कथन करूंगा-करता हूं।
मूलार्थ-राग-द्वेष और मोह के जाल को मूलसहित उखाड़कर फेंकने की इच्छा वाले साधु को जिन-जिन उपायों का अवलम्बन करना चाहिए, उनको मैं क्रमपूर्वक यहां पर कहूंगा-या कहता हूं।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २२२] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं