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जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ । एविंदियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥ ११ ॥ यथा दवाग्नि प्रचुरेन्धने वने, समारुतो नोपशममुपैति । एवमिन्द्रियाग्निरपि प्रकामभोजिनः, न ब्रह्मचारिणो हिताय कस्यचित् ॥ ११ ॥
पदार्थान्वयः-जहा-जैसे, दवग्गी-दावाग्नि, पउरिंधणे-प्रचुर ईंधन से युक्त, वणे-वन में, समारुओ-वायु के साथ, नोवसमं-उपशम को नहीं, उवेइ-प्राप्त होती है, एविंदियग्गी-उसी प्रकार इन्द्रियरूप अग्नि, पगामभोइणो-अति भोजन करने वाले को, कस्सई-किसी भी, बंभयारिस्स-ब्रह्मचारी को, न हियाय-हित के लिए नहीं होती। ... मूलार्थ-जैसे प्रचुर-ईंधनयुक्त वन में वायुसहित उत्पन्न हुई दावाग्नि उपशम को प्राप्त नहीं होती अर्थात् बुझती नहीं, उसी प्रकार प्रकामभोजी अर्थात् विविध प्रकार के रसयुक्त पदार्थों को भोगने वाले किसी भी ब्रह्मचारी की इन्द्रियरूप अग्नि शान्त नहीं होती।
टीका-प्रमाण से अधिक रस वाले आहार के करने से साधु का क्या अहित होता है, प्रस्तुत गाथा में दृष्टान्त के द्वारा इसी भाव को व्यक्त किया गया है। जैसे ईंधन-सूखे हुए वृक्षों से भरे हुए वन में वायु के द्वारा प्रेरित की गई दावाग्नि शान्त नहीं होती, उसी प्रकार सरस पदार्थों का अति भोजन करने वाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियरूप अग्नि भी शान्ति को प्राप्त नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जैसे वायु के साथ मिलने से वन में लगी हुई अग्नि शीघ्र शान्त नहीं होती, उसी तरह इन्द्रियों के द्वारा विषय-वासना की पूर्ति के लिए जो राग उत्पन्न होता है, वह प्रमाण से अधिक सरस आहार करने वाले ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता। जिस प्रकार दावानल वन का दाह कर देता है, उसी प्रकार यह इन्द्रियजन्य राग, धर्मरूप आराम को भस्मसात् कर देता है। एवं जैसे प्रचुर ईंधन और वायु की सहायता से वह दावानल प्रचंड हो जाता है, उसी प्रकार स्निग्ध और अति आहार भी ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि को प्रचण्ड कर देता है। इससे सिद्ध हुआ कि ब्रह्मचारी को अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए प्रणीत और अति मात्रा में आहार करना उचित नहीं।
अब राग के त्याग करने वाले व्यक्ति के अन्य कर्तव्य का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि
विवित्तसेज्जासणजंतियाणं, ओमासणाणं दमिइंदियाणं ।। न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं ॥ १२ ॥
विविक्तशय्यासनयन्त्रितानाम्, अवमाशनानां दमितेन्द्रियाणाम् । - न रागशत्रुर्धर्षयति चित्तं, पराजितो व्याधिरिवौषधैः ॥ १२ ॥ पदार्थान्वयः-विवित्त-स्त्री, पशु आदि से रहित, सेज्जासण-शय्या और आसन से, जंतियाणं-नियंत्रित, ओमासणाणं-अल्पाहारी-अवमौदर्य-तप करने वालों और, दमिइंदियाणं-इन्द्रियों
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २२४] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं