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। अह चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं
अथ चरणविधिनामैकत्रिंशत्तममध्ययनम्
गत तीसवें अध्ययन में तपोमार्ग का वर्णन किया गया है परन्तु तपश्चर्या के लिए वही आत्मा उपयुक्त हो सकता है जो कि चारित्रसम्पन्न हो, अत: इस इकत्तीसवें अध्ययन में चारित्र का वर्णन किया जाता है। यथा -
चरणविहिं पवक्खामि, जीवस्स उ सुहावहं । जं चरित्ता बहू जीवा, तिण्णा संसारसागरं ॥ १ ॥
चरणविधिं प्रवक्ष्यामि, जीवस्य तु सुखावहम् ॥
यं चरित्वा बहवो जीवाः, तीर्णाः संसारसागरम् ॥१॥ पदार्थान्वयः-चरणविहि-चारित्रविधि का, पवक्खामि-कथन करता हूं, जीवस्स-जीव को, सुहावह-सुख देने वाली, जं-जिसको, चरित्ता-आचरण करके, बहू जीवा-बहुत से जीव, तिण्णा-तर गए, संसारसागरं-संसारसागर को, उ-अवधारणार्थक है।
मूलार्थ-अब मैं चारित्रविधि को कहता हूं जो कि जीव को सुख देने वाली है और जिसका आराधन करके बहुत से जीव संसारसागर से पार हो गए।
टीका-प्रस्तुत गाथा में प्रतिपाद्य विषय और उसका फल इन दोनों बातों का निर्देश कर दिया गया है। प्रतिपाद्य विषय तो चारित्रविधि है और उसका फल संसारसमुद्र को पार करना अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति है। यथा-आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य! अब मैं जीव को शुभ फल देने वाली चरणविधि का वर्णन करता हूं, इससे विषय का निर्देश किया और जिस चारित्रविधि के अनुष्ठान से अनेक भव्य जीव दुस्तर संसारसागर को तर गए, यह फलश्रुति बताई गई है। इन दोनों के प्रथम निर्देश से, श्रोताओं को उसके
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १९७] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं