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शयनासनस्थाने वा, यस्तु भिक्षुर्न व्याप्रियते । कायस्स व्युत्सर्गः, षष्ठः स परिकीर्तितः ॥ ३६ ॥
पदार्थान्वयः - सयणासणठाणे वा-शयन, आसन और स्थान में, जे- जो, भिक्खू भिक्षु, न वावरे-स्थित हुआ चलनात्मक क्रिया न करे, कायस्स- काया की चेष्टा का जो विउस्सग्गो-त्याग है, सो- वही, छट्ठो-छठा - व्युत्सर्गनामक तप, परिकित्तिओ - परिकीर्तित अर्थात् कथन किया है।
मूलार्थ - सोते, बैठते अथवा खड़े होते समय जो भिक्षु काया के अन्य सब व्यापारों को त्याग देता है अर्थात् शरीर को हिलाता डुलाता नहीं उसे कायोत्सर्गनामक तप कहा गया है।
टीका-छठा कायोत्सर्गनामक तप है। काया का व्युत्सर्ग त्याग अर्थात् काया की समस्त प्रवृत्तियों का निरोध जिसमें किया जाए, तथा उसके शरीर की सर्व प्रकार की चेष्टाएं रुक जाएं, तब उसके ध्यान को कायव्युत्सर्ग- तप कहा जाता है।
अन्य सूत्रों के अनुसार व्युत्सर्ग भी द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है । द्रव्यव्युत्सर्ग-गण, देह, उपधि और भक्त - पान आदि का त्याग करना । भावव्युत्सर्ग- जिसमें क्रोधादि कषायों का परित्याग हो । परन्तु यहां पर तो केवल शरीरव्युत्सर्ग का ही मुख्यतया प्रतिपादन करना इष्ट है। अन्य भेद तो इसी में गर्भित हो जाते हैं। इस तप के अनुष्ठान से देह ममत्व का त्याग होता है और आत्म-शक्तियों के विकास में अधिक सहायता मिलती है।
अब प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए इसकी फलश्रुति के विषय में कहते हैं एवं तवं तु दुविहं, जे सम्मं आयरे मुणी । सो खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ॥ ३७ ॥ त्ति बेमि ।
इति तवमग्गं समत्तं ॥ ३० ॥
एवं तपस्तु द्विविधं, यत्सम्यगाचरेन्मुनिः । संक्षिप्रं सर्वसंसाराद्, विप्रमुच्यते पण्डितः ॥ ३७ ॥ इति ब्रवीमि ।
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इति तपोमार्गं समाप्तम् ॥ ३० ॥
पदार्थान्वयः–एवं –इस तरह से, तवं - तप, दुविहं - दो प्रकार का, जे - जो, सम्मं - सम्यक् प्रकार से, आयरे - आचरण करे, मुणी- साधु, सो- वह, पंडिए - पंडित, खिप्पं- शीघ्र, सव्वसंसारा- सर्व संसार से, विप्पमुच्चइ - छूट जाता है, त्ति बेमि- इस प्रकार मैं कहता हूं। यह तपोमार्ग-अध्ययन समाप्त हुआ।
मूलार्थ - इन दोनों प्रकार के तपों को भली-भांति समझकर जो मुनि आचरण करता है, वह पंडित पुरुष संसार के समस्त बन्धनों से शीघ्र छूट जाता है।
टीका-बाह्य और आभ्यन्तर तप का फल बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि इस द्विविध तप का
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१९५] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं