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भी वह प्रेम-पूर्वक सभ्यता से मृदु भाषण आदि का व्यवहार करता हुआ उसका समुचित आदर करे, क्योंकि विनय के आचरण से आत्मा की शुद्धि, अहंकार का नाश और गुणों की प्राप्ति होती है। अब वैयावृत्त्य के विषय में कहते हैं -
आयरियमाईए, वेयावच्चम्मि दसविहे । आसेवणं जहाथामं, वेयावच्चं तमाहियं ॥ ३३ ॥
आचार्यादिके, वैयावृत्त्ये दशविधे ।
आसेवनं यथास्थाम, वैयावृत्त्यं तदाख्यातम् ॥ ३३ ॥ ___पदार्थान्वयः-आयरियमाईए-आचार्यादि विषयक, दसविहे-दश प्रकार के, वेयावच्चम्मि-वैयावृत्त्य में, आसेवणं-सेवा करना, जहाथाम-यथाशक्ति, वेयावच्चं-वैयावृत्त्य तप, तं-वह, आहियं-कहा गया है। ___मूलार्थ-वैयावृत्त्य के योग्य आचार्यादि दश स्थानों की यथाशक्ति सेवा-भक्ति करना वैयावृत्त्य-तप कहलाता है।
टीका-आचार्यादि की उचित आहारादि के द्वारा जो सेवा-भक्ति की जाती है उसको वैयावृत्त्य तप कहते हैं। १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. स्थविर, ४. तपस्वी, ५. ग्लान, ६. शिष्य, ७. साधर्मिक, ८. कुल, ९. गण और १०. संघ, ये आचार्यादि दश स्थान कहे जाते हैं। इनकी यथा-शक्ति सेवा-शुश्रूषा करना अर्थात् अन्न-पानादि से, ज्ञानदानादि से तथा अन्य नाना रूपों से उचित सत्कार करना वैयावृत्त्य-तप है। - एक गुरु के शिष्यसमुदाय का नाम कुल है और बहुत से कुलों के समूह को गण कहते हैं। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, इनके समुदाय का नाम संघ है। अब स्वाध्याय-तप के विषय में कहते हैं -
वायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियट्टणा । अणुप्पेहा धम्मकहा, सज्झाओ पञ्चहा भवे ॥ ३४ ॥
वाचना प्रच्छना चैव, तथैव परिवर्तना ।
अनुप्रेक्षा धर्मकथा, स्वाध्यायः पञ्चधा भवेत् ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः-वायणा-वाचना, पुच्छणा-प्रश्न करना, च-पुनः, एव-प्राग्वत्, तहेव-उसी प्रकार, परियट्टणा-परिवर्तन करना, अणुप्पेहा-अनुप्रेक्षा-और, धम्मकहा-धर्मकथा, सज्झाओ-स्वाध्याय, पंचहा-पांच प्रकार से, भवे-होता है।
मूलार्थ-१. शास्त्र की वाचना अर्थात् पढ़ना, २. प्रश्नोत्तर करना, ३. पढ़े हुए की आवृत्ति करना, ४. अर्थ की अनुप्रेक्षा करना-अर्थ पर गम्भीरता से विचार करना, और ५. धर्मोपदेश देना, यह पांच प्रकार का स्वाध्याय-तप है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१९३] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं