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द्वितीय महाव्रत-१. बिना विचारे नहीं बोलना, २. क्रोध से नहीं बोलना, ३. लोभ से नहीं बोलना, ४. मान से नहीं बोलना और ५. हास्य से नहीं बोलना।
तृतीय महाव्रत-१. निर्दोष वसती का सेवन करना, २. तृणादि के ग्रहण करने की आज्ञा लेना, ३. स्त्री के अंगोपांगों को न देखना, ४. सम-विभाग करना और ५. तपस्वी आदि की सेवा करना।
चतुर्थ महाव्रत-१. स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से रहित स्थान का सेवन करना, २. स्त्री कथा न करना, ३. स्त्री के अंगोपांगों को न देखना, ४. विषयों का स्मरण न करना और ५. प्रणीत आहार का सेवन न करना। ___पंचम महाव्रत-१. शब्द, २. स्पर्श, ३. रूप, ४. रस और ५. गन्ध, इन पांचों में आसक्त न होना। इस प्रकार से पांच महाव्रतों की ये २५ भावनाएं हैं।
दशाश्रुतस्कन्धसूत्र के १० और व्यवहारसूत्र के भी १० उद्देशक हैं, किन्तु बृहत्कल्पसूत्र के ६ उद्देशक हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर सब २६ हो जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि जो साधु उक्त २५ भावनाओं की भावना में और उक्त सूत्रों के २६ उद्देशों के स्वाध्याय करने में निरन्तर यत्न रखता है वह इस संसारचक्र से छूट जाता है। उक्त उद्देशों में उत्सर्ग, अपवाद और विधिवाद का बहुत ही विस्तृत वर्णन किया गया है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं -
अणगारगुणेहिं च, पगप्पंमि .. तहेव य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १८ ॥
अनगारगुणेषु च, प्रकल्पे तथैव च ।
यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः-अणगारगुणेहि-अनगार के गुणों में, च-और, तहेव-उसी प्रकार, पगप्पंमि-आचार-प्रकल्प में, जे-जो, भिक्खू-साधु, निच्च-सदैव, जबई-यत्न करता है, से न अच्छइ मंडले-वह संसार में नहीं ठहरता।
मूलार्थ-साधु के गुणों में और आचार के प्रकल्पों में जो साधु निरन्तर उपयोग रखता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
टीका-अनगार-साधु के २७ गुण कहे जाते हैं और आचार-प्रकल्प के २८ भेद हैं। जो साधु इनके विषय में सदा सावधान रहता है उसका संसारभ्रमण छूट जाता है अर्थात् वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। साधु के २७ गुण निम्नलिखित हैं-१-५. पांच महाव्रतों का पालन करना, ६-१०. पांच इन्द्रियों का निग्रह करना, ११-१४. चार कषायों को जीतना, १५. भावसत्य, १६. करणसत्य, १७. योगसत्य, १८. क्षमा, १९. वैराग्यभाव, २०. मन:समाधि, २१. वचनसमाधि, २२. कायसमाधि, २३. ज्ञान, २४. दर्शन, २५. चारित्र, २६. वेदना-सहिष्णुता और २७. मारणांतिक कष्ट सहन करना।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २१०] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं