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मूलार्थ-जो भिक्षु देवता सम्बन्धी तथा पशु और मनुष्य सम्बन्धी उपसर्गों को नित्य सहन करता है वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
टीका-देव-सम्बन्धी उपसर्ग, यथा-हास्य, प्रद्वेष, विमर्श, पृथक्विमात्रा आदि। पशु-सम्बन्धी उपसर्ग, यथा-भय, प्रद्वेष, आहारहेतु और आपत्य, संरक्षणरूप। मनुष्य सम्बन्धी जैसे-हास्य, प्रद्वेष, विमर्श और कुशील-प्रतिसेवनरूप। उपलक्षण से आत्म-सम्बन्धी उपसर्ग भी जान लेने चाहिएं। जैसे कि-घट्टन, प्रपतन, स्तम्भन और श्लेषण इत्यादि। सारांश यह है कि जो साधु देवता, मनुष्य, पशु और आत्मा-सम्बन्धी आकस्मिक उपसर्गों को समता-पूर्वक सहन करता है, अर्थात् उनके प्राप्त होने पर भी धैर्य-पूर्वक स्थिर रहता है, किसी प्रकार की व्याकुलता को प्राप्त नहीं होता, किन्तु शान्ति और गम्भीरता से उनका स्वागत करता है, वह इस संसार के जन्ममरणरूप चक्र से छूट जाता है। तथा -
विगहा-कसाय-सन्नाणं, झाणाणं च दुयं तहा । .. जे भिक्खू वज्जइ निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥६॥ विकथा कषाय-संज्ञानां, ध्यानानां च द्विकं तथा । .
यो भिक्षुर्वर्जयति नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः-विगहा-विकथा, कसाय-कषाय और, सन्नाणं-संज्ञाओं को, तहा-तथा, झाणाणं-ध्यानों का, दुयं-द्विक, जे-जो, भिक्खू-भिक्षु, वज्जइ-वर्जता है, निच्चं-सदैव, से-वह, मंडले-संसार में, न अच्छइ-नहीं ठहरता।
मूलार्थ-चार विकथा, चार कषाय, चार संज्ञा तथा दो ध्यान, इनको जो भिक्षु सदा के लिए त्याग देता है, वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
टीका-प्रस्तुत गाथा में चारित्र विधि का अंकों पर निरूपण किया गया है। विरुद्ध या विपरीत कथा को विकथा कहते हैं। स्त्रीकथा, भक्तकथा, जनपद-देश-कथा और राजकथा, इन चारों की विकथा संज्ञा है। क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों की कषाय संज्ञा है। आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा, ये चारों संज्ञा कहलाती हैं। संज्ञा का अर्थ आशाविशेष एवं त्यागने योग्य आर्त और रौद्र ये दो ध्यान हैं। सारांश यह है कि जो भिक्षु विकथा, कषाय, संज्ञा और आर्त तथा रौद्र ध्यान का सदैव काल के लिए परित्याग कर देता है उसका संसार भ्रमण छूट जाता है। कारण यह है कि ये विकथादि चारों संसारवृद्धि के हेतु हैं। इनका परित्याग कर देने पर ही संसार का परिभ्रमण मिट सकता है। अब पुनः कहते हैं -
वएसु इंदियत्थेसु, समिईसु किरियासु य । . जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ ७ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २००] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं