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असमाधि स्थानों में सदैव यत्न रखता है, वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
टीका - अब्रह्म अर्थात् मैथुन से निवृत्त होना ब्रह्मचर्य है। उसके अठारह भेद इस प्रकार हैं। यथा-नौ प्रकार का औदारिकशरीरसम्बन्धी मैथुनत्याग और नौ प्रकार का देव - शरीर सम्बन्धी - मैथुन का त्याग, इस प्रकार मिलकर दोनों के १८ भेद होते हैं।
औदारिकसम्बन्धी नौ भेद इस रीति से होते हैं-तीन मन के, तीन वचन के और तीन काया के, ये नौ भेद हुए । मन से यथा - १. मैथुन का सेवन करूंगा नहीं, २. किसी से कराऊंगा नहीं और ३. सेवन करने वालों की अनुमोदना नहीं करूंगा।
इसी प्रकार वचन और काया के विषय में जान लेना चाहिए।
इसी तरह नौ भेद देवसम्बन्धिवैक्रियमैथुन के हैं।
ज्ञाता-सूत्र के १९ अध्ययनों के नाम निम्नलिखित हैं- १. मेघकुमार, २. संघाटक, ३. मयूरीअण्डक, ४. कूर्म, ५. शैलर्षि, ६. तुम्बक, ७. रोहिणी, ८. मल्ली, ९. माकन्दीपुत्र, १०. चन्द्रमा, ११. दावद्रक, १२. उदकशुद्धि, १३. मंडुक, १४. तेतली - अमात्य, १५. नन्दीफल, १६. अमरकंका, १७. आकीर्ण, १८. सुसमादारिका और १९. पुण्डरीक - कुण्डरीक ।
आत्मा को असमाहित करने वाले २० असमाधि - स्थान इस भांति हैं - १. शीघ्र चलना, २ . बिना प्रमार्जन के लिए चलना, ३. दुष्प्रमार्जन करके चलना, ४. प्रमाण से अधिक शयनासन रखना, ५. रत्नाधिक के सन्मुख बोलना, ६. स्थविरों के घात के भाव उत्पन्न करना, ७. जीवों के घात करने के भाव उत्पन्न करना, ८. प्रतिक्षण क्रोध करना, ९. दीर्घकालिक क्रोध करना, १०. पिशुनता करना, ११. पुनः पुनः निश्चयात्मक वाणी बोलनी, १२. नूतन क्लेश उत्पन्न करना, १३. शान्त हुए क्लेश को फिर से जगा देना, १४. सचित्त रज से हाथ-पैर भरे होने पर भी शय्यादि पर यत्न से न बैठना, १५. अकाल में स्वाध्याय करना, १६. शब्द करना, १७. क्लेश करना, १८. झंझा शब्द करना, १९. सूर्यास्त तक भोजन करते रहना और २०. एषणासमिति से असमित रहना ।
सारांश यह है कि १८ प्रकार के ब्रह्मचर्य को धारण करना तथा ज्ञातासूत्र के १९ अध्ययनों का पाठ करना और बीस प्रकार के असमाधि स्थानों के टालने में जो भिक्षु यत्न करता है वह संसारचक्र से पार हो जाता है।
अब फिर कहते हैं
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एगवीसा सबले, बावीसाए परीसहे ।
जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १५ ॥
एकविंशतिसबलेषु,
द्वाविंशतिपरीषषु । यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न तिष्ठति मण्डले ॥ १५ ॥
पदार्थान्वयः - एगवीसाए - इक्कीस, सबले - शबलों - दोषों में, बावीसाए - बाईस, परीसहे - परीषहों
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२०७] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं