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अन्ने-अन्य, अभिग्गहा-अभिग्रह हैं-ये सब, भिक्खायरियं-भिक्षाचर्या, आहिया-कही गई है।
मूलार्थ-आठ प्रकार की गोचरी तथा सात प्रकार की एषणाएं और जो अन्य अभिग्रह हैं, ये सब भिक्षाचरी में कहे गए हैं, अर्थात् इन सबको भिक्षाचरी-तप कहते हैं।
टीका-प्रस्तुत गाथा में भिक्षाचरी-तप का वर्णन किया गया है। भिक्षाचरी का दूसरा नाम "गोचरी" भी है। गोचरी अर्थात् गौ की तरह आचरण करना। तात्पर्य यह है कि जैसे गौ तृण आदि का भक्षण करती हुई उसको जड़ से नहीं उखाड़ती, ठीक उसी प्रकार मुनि भी गृहस्थों के घरों में गया हुआ इस प्रकार आहार की गवेषणा करे जिससे कि उनको फिर से कोई नया आरम्भ न करना पड़े।
इस गोचरी या भिक्षाचरी के आठ भेद हैं। उनमें छ: तो पेटिका, अर्द्धपेटिका आदि के नाम से पूर्व में आ चुके हैं तथा ऋजुगति और वक्रगति ये दो भेद और हैं। आधा-कर्मादिदोष से रहित भिक्षाचरी के आठ भेद हैं। तथा १. संसृष्ट, २. असंसृष्ट, ३. उद्धृत, ४. अल्पलेपिका, ५. उद्गृहीता, ६. प्रगृहीता और ७. उज्झितधर्मा, ये सात प्रकार एषणा के हैं। इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से अभिग्रह के भेद होते हैं। यथा द्रव्य से-यदि कुन्तादि के अग्रभाग में स्थित मंडक वा खंडक आदि मिलेगा तो लूंगा। क्षेत्र से यदि आहार देने वाले को दोनों जघाओं के मध्य में देहली अर्थात् दहलीज हो तो आहार लूंगा। काल से-जब सारे भिक्षु भिक्षा ला चुकेंगे, तब आहार को जाऊंगा। भाव से दाता हंसता हो या रोता हो अथवा किसी के द्वारा बंधा हुआ हो, उसके हाथ से आहार मिलेगा तो लूंगा, इत्यादि प्रकार से भिक्षाचरी के भेद समझने चाहिएं। अब रस-परित्याग के विषय में कहते हैं - .
खीर-दहि-सप्पिमाई, पणीयं पाण-भोयणं । परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रसविवज्जणं ॥ २६ ॥
क्षीरदधिसर्पिरादि, प्रणीतं पान-भोजनम् ।
परिवर्जनं रसानां तु, भणितं रसविवर्जनम् ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः-खीर-क्षीर, दहि-दधि, सप्पिं-सर्पि-घृत; आई-आदि पक्वान्न वगैरह, पणीयं-प्रणीत, पाणभोयणं-पानी और भोजन, रसाणं-रसों का, परिवज्जणं-परिवर्जन-त्याग, भणियं-कहा गया है, रसविवज्जणं-रसवर्जन-तप, तु-पादपूर्ति में है।
मूलार्थ-दूध, दही, घृत और पक्वान्नादि पदार्थों तथा रसयुक्त अन्न-पानादि पदार्थों का जो परित्याग है उसको रसवर्जन-तप कहते हैं।
टीका-इस तप में रसयुक्त पदार्थों के परित्याग का विधान है, इसलिए इसको रसपरित्याग-तप कहते हैं। दूध, दधि, घृत तथा रसयुक्त अन्न-पान भोजन अर्थात् बलवर्द्धक अन्य पदार्थ, अथवा मधुराम्लादि रसों में मर्यादा करना रसत्याग-तप है। जैसे-आज मैं दुग्ध, दधि, घृत अथवा अन्य कोई पौष्टिक पदार्थ नहीं खाऊंगा, इस प्रकार की प्रतिज्ञा करना। प्रणीत शब्द का अर्थ है-बलवर्द्धक, बल को बढ़ाने वाला पदार्थ (प्रणीतम्-अतिबृहकम्) तात्पर्य यह है कि उक्त रसयुक्त और बलवर्द्धक पदार्थों
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१८८] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं