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नहीं होता।
भक्तप्रत्याख्यान-तप-की प्रक्रिया इस प्रकार है-जब आयु का परिज्ञान हो जाए, तब गुरु के समीप जाकर अपने किए हुए नियमों की आलोचना करके और सबसे क्षमापनादि क्रिया करके जीवन-पर्यन्त तीन अथवा चार आहारों के परित्याग की प्रतिज्ञा करे। तात्पर्य यह है कि इस व्रत में आयु की अवधि को जानकर गुरुजनों के समक्ष विधि-पूर्वक जीवन भर के लिए तीन या चार आहारों का परित्याग किया जाता है, परन्तु शरीर की चेष्टाओं का परित्याग नहीं किया जाता, अर्थात् उठना, बैठना आदि क्रियाओं को वह अपनी इच्छा के अनुसार कर सकता है।
इंगिनीमरण-इस तप की अन्य सब विधि तो भक्तप्रत्याख्यान-तप की भांति ही हैं, परन्तु इतना विशेष है कि इसमें भूमि का परिमाण करना पड़ता है अर्थात् मैं इतने स्थान में ही जाऊं-आऊंगा, इससे बाहर नहीं तथा शरीर की चेष्टाएं भी उस परिमित भूमि में ही की जा सकती हैं उससे बाहर नहीं।
ये दोनों तप सविचार अनशन हैं, क्योंकि इनमें काया की चेष्टा बनी रहती है, अर्थात् शरीर को हिलाने-डुलाने का त्याग नहीं है।
पादोपगमन-इसके अतिरिक्त पादोपगमन यह अविचार-संज्ञक अनशन-तप है। इसमें शरीर की कोई भी चेष्टा नहीं की जा सकती। जिस प्रकार वृक्ष से कटकर भूमि पर गिरी हुई वृक्ष-शाखा स्वयं किसी प्रकार की भी चेष्टा नहीं करती, उसी प्रकार पादोपगमन-अनशन-तप में भी शरीर की कोई चेष्टा नहीं की जाती, अत: कायचेष्टा से रहित होने के कारण इसकी अविचार संज्ञा है।
. इसके अतिरिक्त इसके सकारणकं और अकारणक ये दो भेद और भी हैं, अर्थात् कारण होने पर अनशन करना तथा बिना कारण (आयु का अन्त निकट जानकर) अनशन करना। इस प्रकार यावत्कालिक अनशन के अनेक भेद-उपभेद माने गए हैं। अब प्रकारान्तर से उक्त तप के भेदों का वर्णन करते हैं -
अहवा सपरिकम्मा, अपरिकम्मा य आहिया । नीहारिमनीहारी, आहारच्छेओ दोसु वि ॥ १३ ॥
अथवा सपरिकर्म, अपरिकर्म चाख्यातम् ।
निर्हारि अनिर्हारि, आहारच्छेदो द्वयोरपि ॥ १३ ॥ पदार्थान्वयः-अहवा-अथवा, सपरिकम्मा-परिकर्मसहित, य-और, अपरिकम्मा-परिकर्मरहित, आहिया-कथन किया है, नीहारी-नगरादि से बाहर, अनीहारी-नगरादि के भीतर, आहारच्छेओ-आहार का व्यवच्छेद, दोसु वि-दोनों में ही माना गया है।
मूलार्थ-अथवा सपरिकर्म और अपरिकर्म तथा नीहारी और अनिहारी, इस प्रकार यावत्कालिक अनशन-तप के दो भेद हैं। आहार का सर्वथा त्याग इन दोनों में ही होता है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में यावत्कालिक अनशन-तप के प्रकारान्तर से भी भेद बताए गए हैं। पहला
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उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१७९] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं