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पेटा चार्धपेटा, गोमूत्रिका पतङ्गवीथिका चैव ।
शम्बूकावर्ता आयतं गत्वा, पश्चादागता षष्ठी ॥ १९ ॥ पदार्थान्वयः-पेडा-पेटिकावत् गृहों की पंक्ति, य-और, अद्धपेडा-अर्द्धपेटिकासदृश गृहपंक्ति, गोमुत्ति-गोमूत्रिकासदृश, पयंगवीहिया-पतंगवीथिका के सदृश, च-पुनः, एव-अवधारणा अर्थ में है, संबुक्कावट्टा-शम्बूकावर्त-शंखावर्त-के तुल्य, आययगंतुं-दीर्घ-लम्बा जाकर पीछे आना, पच्चागया-प्रत्यागतनामक, छट्ठा-छठी विधि है।
मूलार्थ-१. पेटिका अर्थात् सन्दूक के आकार में, २. अर्द्धपेटिका के आकार में, ३. गोमूत्रिका-टेढ़े-मेढ़े आकार में, ४. पतंगवीथिका के आकार में, ५. शंखावर्त आकार में और ६. लम्बा गमन करके फिर लौटते हुए भिक्षाचरी करना, यह छः प्रकार का क्षेत्र-सम्बन्धी ऊनोदरी-तप है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में क्षेत्रसम्बन्धी ऊनोदरी-तप का प्रकारान्तर से वर्णन किया गया है। जो मोहल्ला चतुष्कोण पेटिका के आकार के सदृश हो उसमें अभिग्रह-पूर्वक गोचरी करना अर्थात् आज पेटिका के समान चतुष्कोण घरों की पंक्ति में ही गोचरी के लिए जाऊंगा, इस प्रकार नियम-पूर्वक आहार को जाना, यह क्षेत्रसम्बन्धी ऊनोदरी-तप का प्रथम भेद है।
इसी प्रकार अर्द्धपेटिकाकार गृहों में भिक्षा के लिए जाने की प्रतिज्ञा करना, दूसरा भेद है। गोमूत्रिका-वक्र अर्थात् टेढ़े-मेढ़े आकार के घरों में जाने का नियम करना तीसरा भेद है।
पतंग का अर्थ है शलभ, जैसे पतंग उड़ता है तद्वत आहार लेना, अर्थात् प्रथम एक घर से आहार लेकर, फिर उसके समीपवर्ती पांच-छः घरों को छोड़कर सातवें घर से आहार जा लेना, उसे पतंगवीथिका कहते हैं।
शंखावर्त के समान घूम-घूमकर आहार लेने की प्रतिज्ञा करना, यह पांचवां भेद है। शंखावर्त के भी दो प्रकार हैं-एक आभ्यन्तर अर्थात् गली के अन्दर और दूसरा बाह्य अर्थात् गली के बाहर।।
इनके अतिरिक्त छठा भेद वह है जो कि प्रथम गली के आरम्भ से अन्त तक सीधे चले जाना और फिर वहां से लौटते हुए घरों से आहार लेना। यह छः प्रकार का क्षेत्र-सम्बन्धी ऊनोदरी या अवमोदरण तप कहा है।
यद्यपि यह अभिग्रह-सम्बन्धी कथन भिक्षाचारी में किया गया है तथापि निमित्तभेद से इसका उक्त तपश्चर्या में भी ग्रहण अभीष्ट है। यथा एक ही देवदत्त के पिता-पुत्रादि के सम्बन्ध को लेकर अनेक प्रकार से बुलाया जाता है, उसी प्रकार दृष्टिभेद से तप का भी अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है। अब काल-सम्बन्धी ऊनोदर-तप के विषय में कहते हैं -
दिवसस्स पोरुसीणं, चउण्हं पि उ जत्तिओ भवे कालो । . एवं चरमाणो खलु, कालोमाणं मुणेयव्वं ॥ २० ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १८४] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं