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दिया जाता है। यहां पर आया हुआ 'कोटि' शब्द बहुत्व का बोधक और अनेक जन्मों का सूचक है। अब तप और उसके भेदों का वर्णन करते हैं -
सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरब्भतरो तहा । बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एवमब्भतरो तवो ॥ ७ ॥
तत्तपो द्विविधमुक्तं, बाह्यमाभ्यन्तरं तथा ।
बाह्यं षड्विधमुक्तं, एवमाभ्यन्तरं तपः ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः-सो-वह, तवो-तप, दुविहो-दो प्रकार का, वुत्तो-कहा है, बाहिर-बाह्य तप, तहा-तथा, अब्भंतरो-आभ्यन्तर तप, बाहिरो-बाह्य तप, छव्विहो-छः प्रकार का, वुत्तो-कहा है, एवं-इसी प्रकार, अब्भतरो तवो-आभ्यन्तर तप भी छः प्रकार का है।
मूलार्थ-वह तप बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का कहा है। उसमें बाह्य तप छः प्रकार का है और उसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छः प्रकार का है।
टीका-तप के बाह्य और आभ्यन्तर दो भेद हैं। उनमें बाह्य तथा आभ्यन्तर तप भी छ:-छः प्रकार का है। बाह्य तप द्रव्य की अपेक्षा रखता है और आभ्यन्तर तप में भाव की प्रधानता रहती है। बाह्य तप की लोक में विशेष प्रसिद्धि होती है। अन्य मतों में भी इसका अनेक प्रकार से अनुष्ठान किया जाता है, अत: लोक के प्रायः सभी मतों में प्रसिद्ध होने से यह तप बाह्य कहा जाता है। इसके अतिरिक्त बाह्य तप का मुख्य प्रयोजन इस जीव को अप्रमत्त रखना है, क्योंकि अप्रमादी जीव ही संयमशील बन सकता है अन्यथा प्रमादयुक्त होने से उसकी प्रवृत्ति पाप की ओर झुकती रहती है जो कि किसी भी प्रकार से इष्ट नहीं है। आभ्यन्तर तप की प्रसिद्धि प्रायः कुशल जनों में ही होती है, क्योंकि इस तप में अन्त:करण का व्यापार ही मुख्य होता है, इसलिए यह तप भाव-प्रधान है। ... अब प्रथम बाह्य तप के विषय में कहते हैं -
' अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य, बज्झो तवो होइ ॥ ८ ॥
अनशनमूनोदरिका, भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः
कायक्लेशः संलीनता च, बाह्यं तपो भवति ॥ ८ ॥ पदार्थान्वयः-अणसणं-अनशन, ऊणोयरिया-ऊनोदरी-प्रमाण से न्यून आहार करना, भिक्खायरिया-भिक्षाचर्या, य-और, रसपरिच्चाओ-रस का परित्याग, कायकिलेसो-काय-क्लेश, संलीणया-संलीनता, बज्झो-बाह्य, तवो-तप, होइ-होता है।
मूलार्थ-अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश और संलीनता, ये बाह्य तप के छः भेद हैं।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१७५] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं