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से, तत्थ-वहां पर, गंता-जाकर, सागारोवउत्ते-साकारोपयुक्त, सिज्झइ-सिद्ध होता है, बुज्झइ-बुद्ध होता है, जाव-यावत्, अंतं करेइ-सर्वदुःखों का अन्त कर देता है। ___ मूलार्थ-प्रश्न-वेदनीय आदि कर्मों के क्षय कर देने से फिर क्या होता है?
उत्तर-तदनन्तर औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर को त्यागकर ऋजुश्रेणि को प्राप्त हुआ अव्याहत गति तथा एक समय की ऊंची अविग्रह गति से यह जीव मोक्ष में जाकर ज्ञानोपयोग से सिद्ध हो जाता है, बुद्ध हो जाता है, मुक्त हो जाता है तथा सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है।
टीका-वेदनीयादि कर्मों के क्षय हो जाने के अनन्तर यह आत्मा औदारिक, तैजस, और कार्मण, इन तीनों शरीरों का परित्याग कर देती है। फिर समश्रेणी को प्राप्त होकर जिन आकाश-प्रदेशों में शरीर को छोड़ा है उनसे अतिरिक्त अन्य आकाश-देशों को स्पर्श न करती हुई, एक समय की ऊंची अविग्रहगति से मोक्ष-स्थान में जाकर अपने मूल शरीर की अवगाहना के दो तिहाई जितने आकाश-प्रदेशों में सर्व प्रकार के कर्ममल से सर्वथा रहित होकर ज्ञानोपयोग से विराजती है।
___ यद्यपि उक्त सूत्र में ७३ प्रश्नों का उल्लेख किया गया है, परन्तु कतिपय प्रतियों में ७२वें और ७३वें प्रश्नों को एक मानकर कुल ७२ प्रश्न माने गए हैं। कुछ भी हो, इसमें सिद्धान्तगत कोई भेद नहीं है, यह विषय विशेष उपेक्षणीय या अपेक्षणीय प्रतीत नहीं होता।
अब प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं - एस खलु सम्मत्तपरक्कमस्स अज्झयणस्स अट्ठे समणेणं भगवया महावीरेणं आघविए, पन्नविए, परूविए, दंसिए, निदंसिए, उवदंसिए ॥ ७४ ॥
त्ति बेमि।
इति सम्मत्तपरक्कमे समत्ते ॥ २९ ॥ एषः खलु सम्यक्त्वपराक्रमस्याध्ययनस्यार्थः श्रमणेन भगवता महावीरेणाख्यातः प्रज्ञापितः, • 'प्ररूपितो, दर्शितो, निदर्शित, उपदर्शितः ॥ ७४ ॥
इति ब्रवीमि।
इति सम्यक्त्वपराक्रमः समाप्तः ॥ २९ ॥ पदार्थान्वयः-एस-यह, खलु-निश्चय में, सम्मत्तपरक्कमस्स-सम्यक्त्वपराक्रम, अज्झयणस्स-अध्ययन का, अढे-अर्थ, समणेणं-श्रमण, भगवया-भगवान्, महावीरेणं-महावीर ने, आघविए-प्रतिपादन किया, पन्नविए-प्रज्ञापित किया, परूविए-प्ररूपण किया, दंसिए-दिखलाया,
१. अफुसमाणगइत्ति-अस्पृशद्गतिरिति-नायमों यथा नायमाकाशप्रदेशान्न स्पृशति अपि तु यावत्सु जीवोऽवगाढ़ः तावत्सु एव स्पृशति, न तु ततोऽतिरिक्तमेकमपि आकाशप्रदेशम्। इति वृत्तिकारः।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१६९] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं