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यहां पर 'श्रृणु' इस क्रियापद के द्वारा शिष्य को श्रवणोन्मुख होने के लिए आमंत्रित किया
गया है।
कर्मों का क्षय करने के लिए इस जीव को प्रथम अनास्स्रवी - आस्रव - रहित होने की परम आवश्यकता है, अतः निम्नलिखित गाथा में अनास्रवी का स्वरूप वर्णन करते हैं, यथा पाणिवह - मुसावाया, अदत्त- मेहुण - परिग्गहा विरओ । राईभोयणविरओ, जीवो भवइ अणासवो ॥ २ ॥
प्राणिवध - मृषावाद, अदत्त - मैथुन - परिग्रहेभ्यो विरतः । रात्रिभोजनविरतः, जीवो भवति अनास्त्रवः ॥ २ ॥
पदार्थान्वयः-पाणिवह-प्राणिवध, मुसावाया - मृषावाद, अदत्त- चोरी, मेहुण-मैथुन, परिग्गहा - परिग्रह से, विरओ-विरत - विरक्त, राईभोयणविरओ - रात्रि - भोजन का त्यागी, जीवो- जीव, अणासवो - आस्रवरहित, भवइ - होता है।
मूलार्थ - प्राणिवध अर्थात् हिंसा, मृषावाद अर्थात् झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह से तथा रात्रि - भोजन से विरत अर्थात् विरक्त हुआ जीव अनास्रवी अर्थात् आस्रवरहित होता है।
टीका - हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह, ये पांच आस्रव कहे जाते हैं। इन पांचों आस्रवों तथा रात्रि-भोजन का त्याग करने वाला जीव अनास्रवी अर्थात् आस्रवरहित माना जाता है। यद्यपि रात्रि - भोजन का पहले व्रत में ही समावेश हो जाता है, अर्थात् उक्त पांच आस्रवों के त्याग में रात्रि - भोजन का त्याग भी आ जाता है, तथापि उसकी प्रधानता बताने के लिए उसका पृथक् ग्रहण किया गया है।
यहां पर इतना ध्यान रहे कि भव्य जीव का प्रधान लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है, परन्तु मोक्ष का प्राप्त होना निरतिचार संयम की सम्यक् आराधना पर अवलम्बित है तथा संयम की सम्यक् आराधना के लिए इस जीव को सर्वथा अनास्रवी अर्थात् आस्रवरहित होने की आवश्यकता है। इसी विचार से भगवान् ने प्रथम अनास्रवी होने का उपदेश दिया है।
अब अनास्वी होने का उपाय बताते हैं, यथा -
पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ । अगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो ॥ ३ ॥
पञ्चसमितस्त्रिगुप्तः, अकषायो जितेन्द्रियः । अगौरवश्च निःशल्यः, जीवो भवत्यनास्रवः ॥ ३ ॥
पदार्थान्वयः - पंचसमिओ-पांच समितियों से युक्त, तिगुत्तो- तीनों गुप्तियों से गुप्त, अकसाओ - कषायरहित, जिइंदिओ-जितेन्द्रिय, अगारवो - गर्व से रहित, य-और, निस्सल्लो - शल्य
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १७२] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं