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अह तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं
. अथ तपोमार्गं त्रिंशत्तममध्ययनम्
उनत्तीसवें अध्ययन में अप्रमादता का विशेष वर्णन किया गया है और साथ ही सम्यक्त्व में पराक्रम करने का भी उपदेश दिया गया है, परन्तु सम्यक्त्वी और अप्रमादी जीव को संचित किए हुए पाप कर्मों का क्षय करने के निमित्त तपश्चर्या की अधिक आवश्यकता है, अतः इस तीसवें अध्ययन में तपश्चर्या का वर्णन किया जाता है। यथा -
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जहा उ पावगं कम्मं, रागदोससमज्जियं । खवेइ तवसा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण ॥ १॥
यथा तु पापकं कर्म, रागग-द्वेषसमर्जितम् ।
क्षपयति तपसा भिक्षुः, तदेकाग्रमनाः श्रृणु ॥ १॥
पदार्थान्वयः - जहा - जिस प्रकार से, राग-दोससमज्जियं-राग-द्वेष से उपार्जन किए हुए, पावगं कम्मं-पापकर्म, खवेइ–क्षय करता है, तपसा - तप से, भिक्खू - भिक्षु-साधु, तं - वह, एगग्गमणो-एकाग्रमन होकर, सुण-सुनो, उ- अवधारण में ।
मूलार्थ - राग-द्वेष से अर्जित किए हुए पापकर्म को भिक्षु जिस प्रकार तप के द्वारा क्षय करता हैं, उसको तुम एकाग्रमन होकर श्रवण करो ।
टीका - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से तपश्चर्या का प्रयोजन बताते हुए कहते हैं कि जितने भी पापकर्म हैं, उन सबके उपार्जन करने का हेतु राग-द्वेष है। राग और द्वेष से ही पापकर्मों का संचय किया जाता है, अतः उन संचित किए पापकर्मों का क्षय करने के लिए मैं तुम को तपश्चर्या अर्थात् तपकर्म के अनुष्ठान का उपदेश करता हूं। तुम उसको एकाग्रचित्त से अर्थात् ध्यान पूर्वक सुनो।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १७१] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं