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मूलार्थ - प्रश्न- भगवन् ! माया पर विजय से जीव को किस गुण की प्राप्ति
होती है?
उत्तर - माया पर विजय से जीव को आर्जव अर्थात् सरलता की प्राप्ति होती है और ऋजुभाव युक्त हुआ जीव मायावेदनीय कर्म अर्थात् मायाजनित कर्मपुद्गलों का बन्ध नहीं करता तथा पूर्वसंचित कर्मों का भी क्षय कर देता है।
टीका - मायाचार के करने से अवश्य भोगने योग्य कर्माणुओं का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना मायावदेनीय कर्म है। जिस आत्मा ने मायाचार का परित्याग करके सरलता को धारण कर लिया है, वह उक्त कर्म का बन्ध नहीं करती, अपितु पूर्व में बांधे हुए कर्मों का भी क्षय कर देती है, अतः मुमुक्षु-जनों को मायाचार का त्याग और सरलता के अंगीकार में अवश्य प्रयत्न करना चाहिए। इसी प्रकार क्रोधादि अन्य कषायों के विषय में भी समझ लेना चाहिए।
अब लोभ के विषय में कहते हैं
लोभविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
लोभविजएणं संतोसं जणय । लोभवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ ७०॥
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लोभविजयेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
लोभविजयेन सन्तोषं जनयति । लोभवेदनीयं कर्म न बध्नाति । पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ७०॥ पदार्थान्वयः-लोभविजएणं - लोभ पर विजय से, भंते - हे भगवन्, जीवे - जीव, किं जणय - किस गुण की प्राप्ति करता है? लोभविजएणं-लोभ की विजय से, संतोसं - सन्तोष - गुण की, जणय - प्राप्ति करता है, लोभवेयणिज्जं - लोभवेदनीय, कम्मं - कर्म को, न बंधइ- नहीं बांधता, पुव्वबद्धं - पूर्वबद्ध कर्म की, निज्जरेइ - निर्जरा करता है।
मूलार्थ - प्रश्न - हे पूज्य ! लोभ पर विजय से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? उत्तर - हे शिष्य ! लोभ की विजय से सन्तोष गुण की प्राप्ति होती है । सन्तोषान्वित जीव लोभवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता तथा पूर्वबद्ध कर्मों की भी निर्जरा कर देता है।
टीका - शिष्य ने पूछा कि भगवन् ! लोभ को जीत लेने से यह जीव किस गुण को प्राप्त करता है ? गुरु ने उत्तर दिया कि भद्र ! लोभ पर विजय प्राप्त कर लेने से इस जीव को सन्तोषामृत का लाभ होता है। फिर ऐसा सन्तोषी जीव लोभवदेनीय अर्थात् लोभजन्य-कर्म का बन्ध नहीं करता और लोभ
संचित किए हुए पूर्व कर्मों का भी क्षय कर देता है, अतः लोभ को जीतकर सन्तोष - गुण को प्राप्त करना भव्य पुरुषों का सबसे उत्तम कर्त्तव्य है । यह उक्त गद्यरूप गाथा का फलितार्थ है ।
अतः
कषाय- विजय के अनन्तर राग-द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय की प्राप्ति होती है, य - विजय के बाद अब राग-द्वेष और मिथ्यादर्शन के सम्बन्ध में कहते हैं
कषाय-1
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१६२] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं
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