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मणुन्नामणुन्नेसु-प्रिय वा अप्रिय, फासेसु - स्पर्शों में, रागदोसनिग्गहं जणयइ - रागद्वेष के निग्रह का उपार्जन करता है, तप्पच्चइयं - तत्प्रत्ययिक - तन्निमित्तक, कम्मं - कर्म को, न बंधइ- नहीं बांधता, च - फिर, पुव्वबद्धं निज्जरे - पूर्वबद्ध की निर्जरा करता है, (च) - प्राग्वत् ।
मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! स्पर्शन-इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव किस गुण की प्राप्ति करता है?
उत्तर - हे भद्र ! स्पर्शन-इन्द्रिय के निग्रह से मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में राग-द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं होते, उनके न होने से कर्म का बन्ध भी नहीं होता और पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा भी हो जाती है अर्थात् पूर्वोपार्जित कर्म भी क्षय हो जाते हैं।
टीका - स्पर्शन - इन्द्रिय के निग्रह अर्थात् संयम से अच्छे-बुरे स्पर्श में यह जीव रागद्वेष से रहित हो जाता है, इसीलिए उसको रागद्वेष - जन्य कर्मों का बन्ध नहीं होता तथा पूर्वोपार्जित कर्म भी नष्ट हो जाते हैं।
इन्द्रिय - निग्रह के अनन्तर कषाय-1 - विजय के प्रस्ताव में प्रथम क्रोध - विजय के विषय में कहते हैं। यथा
कोहविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
कोहविजएणं खंतिं जणय । कोहवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ । पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ ६७ ॥
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क्रोधविजयेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? क्रोधविजयेन क्षान्तिं जनयति ।
निर्जरयति ॥ ६७ ॥
क्रोधवेदनीयं कर्म न बध्नाति । पूर्वबद्धं च
पदार्थान्वयः - भंते - भगवन्, कोहविजएणं-क्रोध की विजय से, जीवे - जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है, कोहविजएणं - क्रोध पर विजय से, खंतिं जणयइ - क्षमा को प्राप्त करता है, कोहवेयणिज्जं - क्रोधवेदनीय, कम्म-कर्म को, न बंधइ- नहीं बांधता, च- पुनः, पुव्वबद्धं - पूर्व बांधे हुए को, निज्जरे - क्षय कर देता है।
मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्रोध के जीतने से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है?
उत्तर - क्रोध पर विजय प्राप्त करने से जीव को क्षमा-गुण की प्राप्ति होती है। ऐसा क्षमायुक्त पुरुष क्रोधवेदनीय अर्थात् क्रोधजन्य कर्मों का बंध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर देता है |
टीका-शिष्य ने पूछा कि भगवन् ! क्रोध पर विजय प्राप्त कर लेने से किस गुण की प्राप्ति होती है? इसके उत्तर में गुरु ने कहा कि भद्र ! क्रोध पर विजय से क्षमा-गुण की प्राप्ति होती है और क्षमा से क्रोधजन्य कर्म का बन्ध नहीं होता तथा पूर्वसंचित कर्मों का विनाश हो जाता है। क्रोध के उदय
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१६०] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं