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टीका-घ्राण-इन्द्रिय के निग्रह से सुगन्ध और दुर्गन्ध-विषयक राग-द्वेष के भाव उत्पन्न न होने से तन्निमित्तक कर्म का बन्ध भी नहीं होता और पूर्वबद्ध की निर्जरा भी हो जाती है।
अब जिह्वेन्द्रिय के विषय में कहते हैं - जिब्भिंदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
जिब्भिंदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु रसेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ। तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ ६५ ॥
जिह्वेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
जिह्वेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु रसेसु रागद्वेषनिग्रहं जनयति। तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति। पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ६५ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन् ! जिभिदियनिग्गहेणं-जिह्वा-इन्द्रिय के निग्रह से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है? जिभिदियनिग्गहेणं-जिह्वा-इन्द्रिय के निग्रह से, मणुन्नामणुन्नेसु-प्रिय वा अप्रिय, रसेसु-रसों में, रागदोसनिग्गहं जणयइ-राग-द्वेष का निग्रह करता है, तप्पच्चइयं-तन्निमित्तक, कम्म-कर्म को, न बंधइ-नहीं बांधता, च-और, पुव्वबद्धं-पूर्वबद्ध की, निज्जरेइ-निर्जरा कर देता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! जिह्वा-इन्द्रिय के निग्रह से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? . उत्तर-जिह्वा-इन्द्रिय के निग्रह से जीव इष्ट-अनिष्ट रसों में राग-द्वेष का निग्रह करता है और तन्निमित्तक कर्म को नहीं बांधता और साथ ही पूर्वसंचित कर्मों का भी क्षय कर देता है।
टीका-रसना इन्द्रिय के निग्रह से रसों के विषय में राग-द्वेष के जो भाव उत्पन्न होते हैं उनका निग्रह हो जाता है, इत्यादि सब प्रथम की भांति जान लेना चाहिए।
अब स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में कहते हैं - फासिंदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
फासिंदिय-निग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु फासेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ। तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ ६६ ॥
स्पर्शनेन्द्रिय-निग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
स्पर्शनेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु स्पर्शेषु रागद्वेष-निग्रहं जनयति। तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति। पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ६६ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, फासिंदियनिग्गहेणं-स्पर्शन-इन्द्रिय के निग्रह से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण की उपार्जना करता है? फासिंदियनिग्गहेणं-स्पर्श-इन्द्रिय के निग्रह से,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १५९] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं