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अकम्पावस्था को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् फिर वह किसी से कम्पायमान नहीं हो सकता। इस शैलेशीभाव का फल मोक्षपद की प्राप्ति है।
अब इन्द्रियों के विषय का प्रस्ताव करते हुए प्रथम श्रोत्रेन्द्रिय के सम्बन्ध में कहते हैं यथा -
सोइंदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
सोइंदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु सद्देसु रागदोसनिग्गहं जणयइ। तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ ६२ ॥
श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु शब्देषु रागद्वेषनिग्रहं जनयति। तत्प्रत्ययं (रागद्वेषोत्पन्नं) कर्म न बध्नाति। पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ६२ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, सोइंदियनिग्गहेणं-श्रोत्र-इन्द्रिय के निग्रह से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है, सोइंदियनिग्गहेणं-श्रोत्र-इन्द्रिय के निग्रह से, मणुन्नामणुन्नेसु-मनोज्ञामनोज्ञ, सद्देसु-शब्दों में, रागदोस-रागद्वेष के, निग्गह-निग्रह को, जणयइ-प्राप्त करता है, च-फिर, तप्पच्चइयं-तत्प्रत्यायक, कम्म-कर्म को, न बंधइ-नहीं बांधता, च-और, पुव्वबद्धं-पूर्व में बांधे हुए की, निजरेइ-निर्जरा कर देता है। ___मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! श्रोत्र-इन्द्रिय के निग्रह से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है?
उत्तर-श्रोत्र-इन्द्रिय के निग्रह से प्रिय और अप्रिय शब्दों में राग-द्वेष का निग्रह हो जाता है, फिर तन्निमित्तक कर्मों का बन्ध नहीं होता और पूर्व में बांधे हुए कर्मों की निर्जरा हो जाती है।
. टीका-श्रोत्र-इन्द्रिय का निग्रह कर लेने से इस जीव की शब्दविषयक राग-द्वेष की परिणति का निरोध हो जाता है, तात्पर्य यह है कि उसको शब्द की प्रियता में राग और अप्रियता में द्वेष नहीं रह जाता, इसलिए राग-द्वेष-जन्य जो कर्मबन्ध है, उसका भी अभाव हो जाता है। इस प्रकार राग-द्वेष का निग्रह होने से पूर्वसंचित कर्मों का भी विनाश हो जाता है।
अब चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह के विषय में कहते हैं - चक्खिंदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? ।
चक्खिंदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु रूवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ। तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ॥ ६३ ॥
चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ? चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु रूपेषु रागद्वेषनिग्रहं जनयति। तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति।
'उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १५७] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं