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गुरु कहते हैं कि वत्स ! ज्ञानसम्पन्न आत्मा सर्व पदार्थों के रहस्य को जान लेती है तथा चतुर्गतिरूप संसार-अटवी में इतस्तत: भटकती हुई विनाश को प्राप्त नहीं होती, अर्थात् संसाररूप महा जंगल में खोई नहीं जाती। इस पर दृष्टान्त देते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जैसे डोरे से युक्त सुई खोई नहीं जाती, अर्थात् जिस-सुई के साथ डोरा लगा हुआ है वह यदि कचरे में गिर भी जाए तो ढूंढ़ने पर जल्दी ही मिल जाती है, उसी प्रकर श्रुत-ज्ञान से युक्त जीव भी इस संसार में भटकने से बच जाता है, अर्थात् इस संसार-अटवी से पार हो जाता है, क्योंकि श्रुत-ज्ञान उसको समय-समय पर मार्ग दर्शाता रहता है।
इसके अतिरिक्त वह ज्ञान, विनय, तप और चारित्र योग को प्राप्त करके स्वपर-मत का विज्ञ होकर प्रामाणिक पुरुष बन जाता है। तात्पर्य यह है कि दोनों मतों का जानकार होने से वह जिज्ञासु जनों के संशयों को दूर करने में विशिष्ट प्रभाव रखने वाला हो जाता है। अतएव सब लोग उसको सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।
अब दर्शन सम्पन्नता के विषय में कहते हैं। दंसण-संपन्नयाए. णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
दसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ। परं न विज्झायइ। परं अविज्झाएमाणे अणुत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्म भावेमाणे विहरइ ॥६० ॥
दर्शनसम्पन्नतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
दर्शनसम्पन्नतया भवमिथ्यात्वच्छेदनं करोति। परं न विध्यापयति। परमविध्यापयन्ननुत्तरेण ज्ञानदर्शनेनात्मानं संयोजयन् सम्यग् भावयन् विहरति ॥६० ॥ • पदार्थान्वयः-दसण-संपन्नयाए णं-दर्शन-सम्पन्नता से, भंते-हे भगवन्, जीव-जीव, किं जणयइ-क्या गुण प्राप्त करता है, सण-संपन्नयाए-दर्शन-संपन्नता से, भवमिच्छत्तछेयणं-भव का हेतु जो मिथ्यात्व है उसका छेदन, करेइ-करता है, परं-उत्तर काल में, न विज्झायइ-ज्ञान के प्रकाश का अभाव नहीं होता, परं-उत्तर काल में, अविज्झाएमाणे-प्रकाश के विद्यमान होने से, अणुत्तरेणं-प्रधान, नाण-ज्ञान,. दंसणेणं-दर्शन से, अप्पाणं-आत्मा को, संजोएमाणे-जोड़ता हुआ, सम्म-सम्यक्, भावेमाणे-भावित करता हुआ, विहरइ-विचरता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! दर्शन-सम्पन्न जीव किस गुण को प्राप्त करता है?
उत्तर-हे भद्र ! दर्शन-सम्पन्न जीव क्षायिक-दर्शन को प्राप्त करता है जो कि संसार के हेतु मिथ्यात्व का सर्वथा उच्छेद कर देने वाला है। फिर उत्तर काल में उसके दर्शन का प्रकाश बुझता नहीं, किन्तु उस दर्शन के प्रकाश से युक्त हुआ जीव अपने अनुत्तर ज्ञान-दर्शन से आत्मा का संयोजन करता है तथा सम्यक् प्रकार से उसे भावित करता हुआ विचरण करता है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में दर्शन-सम्पत्ति का फल बताया गया है। शिष्य पूछता है कि भगवन् ! क्षायोपशमिक दर्शन-सम्यक्त्व से इस जीव को क्या लाभ होता है? उत्तर में गुरु कहते हैं कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से युक्त जीव क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इस सम्यक्त्व को प्राप्त कर
• उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१५५ ] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं