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वीतरागतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
वीतरागतया स्नेहानुबन्धनानि तृष्णानुबन्धनानि च व्युच्छिनत्ति। मनोज्ञामनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरूपरसगन्धेषु सचित्ताचित्तमिश्रेषु चैव विरज्यते ॥ ४५ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, वीयरागयाए णं-वीतरागता से, जीव-जीव, किं जणयइ-क्या उपार्जन करता है। वीयरागयाए णं-वीतरागता से, नेहाणुबंधणाणि-स्नेह बन्धनों का, य-और, तण्हाणुबंधणाणि-तृष्णा के अनुबन्धनों का, वोच्छिदइ-व्यवच्छेद करता है तथा मणुन्नामणुन्नेसु-मनोज्ञ
और अमनोज्ञ, सद्दफरिसरूवरसगंधेसु-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध में, सचित्ताचित्तमीसएसु-सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों में, च-पुनः, एव-अवधारण अर्थ में है, विरज्जइ-विरक्त हो जाता है।
मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! वीतरागता से किस गुण की प्राप्ति होती है?
उत्तर-वीतरागता से स्नेहानुबन्ध तथा तृष्णानुबन्ध का व्यवच्छेद हो जाता है। फिर प्रिय और अप्रिय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तथा सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों में उसका वैराग्य उत्पन्न हो जाता है।
टीका-वीतरागता की प्राप्ति से यह जीव स्नेह के बन्धनों को तोड़ देता है, अर्थात् पुत्रादि-विषयक उसका जो राग है वह जाता रहता है। इसके अतिरिक्त द्रव्यादिविषयक जो तृष्णा है उसका भी क्षय हो जाता है। इसीलिए प्रिय तथा अप्रिय जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और सचित्ताचित्त तथा मिश्र द्रव्य हैं उनसे वह विरक्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष के क्षय हो जाने से उसकी किसी भी पदार्थ में आसक्ति नहीं रह जाती और न ही उसके लिए कोई पदार्थ.प्रिय अथवा अप्रिय होता है। यद्यपि वीतरागता का कथन पहले भी आ चुका है, तथापि राग की प्रधानता दर्शाने के लिए यह प्रश्न किया गया है। कारण यह है कि संसार में सर्व प्रकार के अनर्थों का मूल यदि कोई है तो वह राग है। उसका दूर करना ही वीतरागता है, जो कि परमपुरुषार्थरूप मोक्षतत्त्व का साधक है। अब क्षमा के विषय में कहते हैं -
खंतीए णं भंते ! जीवे किं जणयह ? खंतीए णं परीसहे जिणइ ॥ ४६ ॥
क्षान्त्या भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
क्षान्त्या परीषहान् जयति ॥ ४६ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, खंतीए णं-क्षमा से, जीवे-जीव, किं जणयइ-क्या उपार्जन करता है, खंतीए णं-क्षमा से, परीसहे-परीषहों को, जिणइ-जीतता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! क्षमा से जीव किस गुण की उपलब्धि करता है? उत्तर-क्षमा से जीव परीषहों को जीतता है। टीका-क्षमा धारण करने का फल बताते हुए आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य ! क्षमा से यह जीव
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १४४] सम्पत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अन्झयणं