________________
चित्त के निरोध से ही संयम के फल की प्राप्ति होती है। अतः अब संयम के विषय में कहते हैं - .
संजमेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ ॥ २६ ॥ संयमेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
संयमेनानहंस्कत्वं जनयति ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन, संजमेणं-संयम के द्वारा, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण का उपार्जन करता है, संजमेणं-संयम से, अणण्हयत्तं-अनास्रवत्व (कर्मों को न बांधना) को, जणयइ-प्राप्त करता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! संयम से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? उत्तर-हे शिष्य ! संयम से यह जीव आस्रव से रहित हो जाता है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में संयम के आराधन का फल वर्णन किया गया है। संयम के धारण करने से कर्मों का बन्धन नहीं होता। कारण यह है कि संयम की आराधना से पांचों आस्रवों का निरोध हो जाता है। उसके कारण अनास्रवी-आस्रवरहित होता हुआ जीव पुण्य और पांप दोनों का ही बन्ध नहीं करता। यद्यपि शास्त्रकारों ने संयम के १७ भेद कर दिए हैं, तथापि उनमें से अन्तिम के जो मन:संयम, वाक्संयम और कायसंयम, ये तीन भेद हैं, उनका यदि सम्यक्तया पालन किया जाएगा तभी यह जीव अनास्रवी हो सकता है।
. इस प्रकार संयमयुक्त होने पर भी तप के बिना पूर्वकृत कर्मों का क्षय नहीं हो सकता, अतः अब तप के विषय में कहते हैं -
तवेणं भंते । जीवे किं जणयड ?
तवेणं वोदाणं जणयइ ॥ २७ ॥ ... तपसा भदन्त ! जीवः किं जनयति ? .
तपसा व्यवदानं जनयति ॥ २७ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, तवेणं-तप से, जीव-जीव को, किं-क्या, जणयइ-फल प्राप्त होता है, तवेणं-तप से, वोदाणं-व्यवदान पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय, जणयइ-उपार्जन करता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! तप से जीव किस फल को प्राप्त करता है?
उत्तर-तप से व्यवदान अर्थात् पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करके आत्मशुद्धि की प्राप्ति करता है।
टीका-तप एक प्रकार की विशिष्ट अग्नि है जो कर्मरूप मल को जलाकर भस्मसात् कर देने का अपने में पूर्ण सामर्थ्य रखती है। यद्यपि यहां पर तप के भेदों का निरूपण नहीं किया गया है तथापि
'उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१२७] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं